कविता

पर्यावरण और हमारे पुरखे

घटते जल जंगल जमीन
सिकुड़ते नदी नाले
अस्तित्व खोती तलैया
पेड़ पौधों की घटती संख्या, मिटती हरियाली
कंक्रीट के जंगलों का बढ़ता कारवां
कल कारखानों की संख्या में अप्रत्याशित बृद्धि
धरती की कोख पर बढ़ते घाव
जलदोहन का खतरनाक जूनून
आधुनिकता, विकास और निहित स्वार्थवश
विकास यात्रा का हमारा दंभ खतरा बन रहा है।
हमारे लिए ही नहीं हर प्राणी मानव अस्तित्व के लिए भी
और हम आत्ममुग्धता में मगन हैं।
बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन बेतरतीब हो रहा मौसम
अप्रत्याशित बेमौसम बाढ़, सूखा भूस्खलन, भूकंप
बादल फटने की बढ़ती घटनाएं
नई नई बीमारियां, अप्रत्याशित अप्राकृतिक घटनाएं
हमें कब से सचेत कर हमसे कुछ कह रही हैं
और हम आंख कान बंद किए हवा में उड़ रहे हैं,
जैसे कुछ समझना नहीं चाह रहे हैं
या लापरवाह हो गए हैं।
जो भी हो पर्यावरण के साथ ये दुर्व्यवहार नहीं चलेगा,
पर्यावरण का सम्मान करना फिर से सीखना होगा।
हमारे पुरखे बेवकूफ तो नहीं थे
जो खुद को प्रकृति से जुड़कर चलते थे
जल, जंगल जमीन का सम्मान ही नहीं करते थे
पूजा पाठ के साथ संरक्षण भी करते थे
तब वे लंबी उम्र तक जीते भी थे
गंभीर बीमारियों तक का इलाज प्रकृति में ही पा लेते थे
हमसे ज्यादा खुश ही नहीं स्वस्थ भी रहते थे,
क्योंकि वे हमारी तरह स्वार्थी नहीं थे
पर्यावरण से घुल मिलकर रहते थे
पर्यावरण के बड़े संरक्षक, समर्थक और पुरोधा थे
अनपढ़ ही सही, हमसे आपसे ज्यादा बुद्धिमान थे।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921