हास्य व्यंग्य

हैप्पीनेस इंडेक्स वाली वर्ल्ड रैंकिंग

उस दिन नाई की तलाश में एक प्लाजा में गया। वहाँ एक सुसज्जित सैलून के सामने ठिठक पड़ा। एक बार ऐसे ही एक सैलून में एक फैशनेबल नाई ने, जिसे मैंने सिद्धहस्त माना था, मेरी टपोरी-कट कटिंग किया था। इसे यादकर मैं सैलून में जाने से हिचका भी। लेकिन शीशे के पार से नाई ने देख लिया और मुझे अंदर आने का संकेत किया। मैं गया और उसे अपने बालों की कटिंग समझाया। इसे समझकर उसने कहा, जो नाई दिखाई पड़ने में साधारण हो वही आपके बालो की कटिंग समझ सकता है फैशनपरस्त नहीं। मेरे पूर्वानुभव से उसकी बात सिद्ध हुई। उसकी बात ऊँची और अद्भुत थी! मैंने तत्काल वहीं एक दार्शनिक सूत्र भी गढ़ा कि साधारण, साधारण के मन की बात समझता है दिखावटी पर्सनालिटी वाला नहीं, अर्थात सिम्पल पर्सन समझदार होता है। फिर कैंची और कंघी हाथ में लेकर उसने कहा ‘पहली बार आए हो, ऐसी कटिंग करुंगा कि अगली बार भी यहीं आओगे‌।’ जैसे ही उसने बालों पर नपे-तुले अंदाज में कैंची चलाना शुरू मुझे उसकी बातों पर इत्मीनान हो गया। इस बीच सैलून में तीन लोग आए थे और अंदर की लंम्बाई-चौड़ाई लेने लगे। वे यहाँ प्लाजा में ऐसी ही एक दुकान लेने की बात कर रहे थे। उनकी बातचीत का कुछ अंश यह था,

‘यहाँ बार खोला जा सकता है भीड़ भी खूब होगी!’

‘नहीं, यहां सोसायटियाँ हैं इसके पास बार खोलने की अनुमति नहीं मिलेगी।’

“अरे सब हो जाएगा, पन्द्रह लाख खर्च करने होंगे बस, लाइसेंस मिल जाएगा।” यह आत्मविश्वास से लबरेज वाक्य था। इस बातचीत के बाद वे चले गए थे।

नाई बाल बना चुका था। जैसे छोटी बात में आम आदमी खुशी ढूँढ़ लेता है वैसे ही मन मुताबिक कटिंग देखकर मुझे भी हैप्पीनेस फील हुआ। लेकिन एक सौ बीस रूपए में बाल बने थे, इसलिए यह आम आदमी वाली खुशी नहीं थी।

प्लाजा से बाहर आया। धूप कड़ी थी। पार्कनुमा स्थान से पेड़ों की छाँव में होकर चल रहा था। अचानक दूर एक कोने पर निगाह पड़ी। वहाँ चबूतरे पर पेड़ के तने के सहारे एक व्यक्ति बैठा था। निकट पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि यह घिस‌इया है मौसमी मजदूर! जो गाहे-बगाहे गाँव-शहर-गाँव करता रहता है‌। वह भी शहर आया है इसकी मुझे जानकारी थी‌। लेकिन उसे दम मारो दम वाली मस्ती में मगन देख मैं अचंभित हुआ। सोचा, यह निठल्ल‌ई जो न कराए। लेकिन नशीले धुँएं के पार उसके चेहरे पर दुश्चिंता की नहीं बल्कि अनोखे आनंद की रेखाएं दृष्टिगोचर हुई!

आनंदित होने और खुशहाली में गहरा संबंध है। घिस‌ईया को परमानंद महसूसते देख मैंने उसे खुशहाल माना। तभी मुझे वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स की हालिया रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग याद आ गई। इसमें भारत एकदम से निचले पायदान पर है। लेकिन घिस‌इया का यह मस्त अंदाज इस वर्ल्ड रैंकिंग को धत् तेरी की कह रहा था। मेरे भी मन में प्रश्न उठा कि क्या अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने भारतीयों को बिना जाने-समझे उनके लिए खुशहाली का मापांक तय किया है? यदि ऐसा है तो हमारे देश की खुशी कैलकुलेट करने में जबर्दस्त घोटाला किया है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भारत के प्रति इतनी उदार नहीं कि ऐसे मामले में गलती करें। इसलिए मैंने अनुमान लगाया कि भारत में खुशहाली का यह कैलकुलेशन प्रकारांतर से देश को बदनाम करने का षड़यंत्र है। अब मुझे इसपर चिंता होने लगी कि ये विदेशी इस तर्क से कि जिस देश के निवासी खुश नहीं वह विश्व गुरु बनने लायक नहीं, भारत को विश्व गुरु नहीं बनाना चाहते। इस चुनौती पर भी मैंने विचार किया। हमें पूरे विश्व समुदाय को बताना होगा कि घिस‌इया जैसा इस देश का आदमी बहुत सनातनी है। वह सुख-सम‌द्धि, रोग-व्याधि, जीवन-मरण, जस-अपजस सब विधि-हाथ सौंपकर निश्चिंत हुआ अपने में मगन रहता है और बिना किसी वाह्य संसाधन के ओनली परमात्मचिंतन से वह परमानंद प्राप्त कर लेता है जबकि पश्चिमी देश इसके लिए भौतिक संसाधन ढूँढ़ते हैं। निश्चित ही इस अर्थ युग में भारतीयों की बिना इनपुट के मुफ्त में ही खुशी प्राप्त कर लेने की क्वालिटी से दुनियां ही नहीं हैप्पीनेस इंडेक्स देने वाली संस्था भी प्रभावित होगी और भारत की बात मानने के लिए इन्हें बाध्य होना पड़ेगा।

इधर मैं देश चिंता में हलकान विश्व समुदाय में भारत को प्रतिष्ठित कराने हेतु आइडिया पर आइडिया खोज रहा था उधर घिस‌इया ने खेला कर दिया! उसने जोर का दम मारकर मुँह से धुँआ आसमान की ओर ऐसे उड़ाया जैसे दुनियां को बताकर ही दम लेगा कि असली खुशी यह है! मुझे लगा अपने इस प्रयास से वह खुशहाली की रेटिंग मामले में हुई बदनामी से भारतवासियों को उबारना भी चाह रहा है! उसकी इस अद्भुत देशभक्ती पर मैं गदगद था। सोचा, ऊपर वाले ने भारतीयों में गजब की नेमत बख्शी है। इनमें रुहानी खुशियाली के बलबूते भारत को विश्व गुरु बनाने की अद्भुत क्षमता है! सौभाग्य से आबादी के मामले में भी हम दुनियां के अब नंबर एक देश हैं। ऐसे में विश्व खुशहाली रैंकिंग में सुधार हेतु भारतीयों के इस परमात्मचिंतनोत्पन्न खुशी को शामिल कराना जरूरी है। इससे हम अधिकतम जनसंख्या के बूते दुनियां में अधिकतम खुशी वाले देश बन जाएंगे। इस विचार के साथ देश-चिंता से लगभग मुक्त हुआ मैं चुपचाप वहाँ से खिसकना चाहा। लेकिन गाँव-जवार के आदमी से नजरें चुरा कर जाना अच्छा नहीं लगा। इसलिए स्वयं को घिस‌इया के सामने प्रकट कर दिया। मुझे साक्षात अपने सामने खड़ा देख वह सकपका गया। जल्दबाजी में जैसे-तैसे एक पुड़िया को बंडी की जेब में ठूँसा। उसे जेब में व्यवस्थित करते हुए बोला, “अरे गुरु! आप इंहाँ?”

अरे भाई! जहाँ रोजी-रोटी होगी वहीं न होंगे हम, तुम भी तो..” लेकिन अचानक मैंने बात बदलकर उससे कहा, “तुम्हें देखा तो सोचा, गाँव-जवार का हालचाल लेता चलूँ लेकिन तुम दीन-दुनियां से बेखबर यहाँ साधना में लीन दिखाई पड़े!” वह सकुचाकर सफाई देते हुए बोला, ‘गुरु, ई नशापाती से थकाई नहीं लगता।” “लेकिन यह तो स्वास्थ्य और कानून दोनों के खिलाफ है?” मैंने प्रश्नात्मक प्रतिवाद किया।

देखो साहेब! हमका स्वास्थ्य-फ्वास्थ की चिंता नाहीं, क‌ऊन आप सुँभा की नाईं हम राज खड़ा किहे हैन कि ओकर सुख भोगना है, अऊर रही आपक‌इ कानून-फानून की बात तो यह कब कहाँ किसके खिलाफ अऊर कब किसके पच्छ में हुइ जात है ई आप‌ऊ जानत हैं..है कि नाहीं? कोन‌ऊ गलत तो नाय बोल दिए साहेब?”

उसकी बात पर मैं भौंचक था। जैसे सैलून में हुई बातें उसने भी सुना हो! वैसे मुझे पता है कानून की चिंता करते-करते वह ‘साहबों’ और ‘साहबी’ पर कटहा कुकुर बनकर दौड़ पड़ता है। मुझे याद आया पिछली बार जब गाँव में मिला था तो खिन्न मन से बताया था कि कैसे एक हत्यारोपी को तमाम सबूतों के बावजूद तीन महीने में ही जमानत मिला ग‌ई क्योंकि पीड़ित की ओर से कोई पैरोकार नहीं था। उस दिन उसने यह भी कहा था, “गुरू ई साहबों की साहबी और उनक‌इ ठाट-बाट क‌ऊने काम के!” उसकी बात में आज भी वही खिन्नता बरकरार थी तभी उसने मुझे ‘गुरू’ की बजाय ‘साहेब’ बोल दिया है। यह सच है कि ‘कानून’ की बात करने पर वह ऐसे ही खुन्नस खा जाता लेकिन हो सकता है आज नशे में देख लिए जाने पर सब झार मगर‌इलै पर उतारने की नाईं उसने मुझे ‘साहेब’ बोल दिया हो! मैंने मन को समझाया। वैसे मेरे लिए उसका चिरपरिचित संबोधन “गुरु” ही होता है।

लेकिन इस बेफालतू वाले “गुरु” और “साहब” के झमेले में न पड़ मैंने अपना फोकस खुशहाली के पैमाने पर ही रखा। इसके लिए गणितीय फार्मूले के एंगिल से सोचना शुरू किया। यदि कानून अपना ‘पच्छ’ बदल भी ले तो देश में खुशहाली की मात्रा पर क्या फर्क आएगा? मेरी समझ से इसमें कोई अंतर नहीं आना चाहिए क्योंकि तराजू देश का ही होगा बस ‘खुशी’ इस पलड़े से उस पलड़े में ट्रांसफर हो जाएगी! इसीलिए किसी भी तरीके के भ्रष्टाचार से इस देश में खुशहाली की मात्रा में कोई अंतर नहीं आता। वैसे भी यहाँ चाहे सोसायटी वाले हों या अपराध से पीड़ित, ये लोकतंत्र और देश की अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं दे सकते, बल्कि प्लाजा में बार खुलने पर बार मालिक या जमानत पर छूटा अपराधी इसमें विशेष योगदान देता है‌, क्योंकि इनकी मदद से नेता में नेतृत्व का गुण पैदा होता है और ऐसे गुणीवान नेताओं से ही देश में खुशहाली आती है! ये प्रामाणिक बातें हैं। उस दिन मुझे गाँव में इसका प्रमाण भी देखने को मिला था। मैंने देखा था कि कैसे समाज का एक सभ्रांत और प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने नेतृत्व क्षमता पर चार-चाँद की तरह टांगे एक आपराधिक आरोपी को लिए घूम रहा है। पता चला कि उन संभ्रांत जी ने थाना-कचहरी पर अपने इसी संभ्रांतता का येन-केन-प्रकारेण इस्तेमाल कर एक गंभीर आपराधिक आरोप से उसे मुक्त कराया था‌। संभ्रांत जी का साथ उस आरोपी के चेहरे पर गर्व और प्रसन्नता के भाव का कारण बना नजर आया था। मेरे समझ में देश में खुशहाली ऐसे भी पैदा की जाती है। इस प्रकार देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने ईर्ष्यावश या नासमझी में भारतीयों के आंतरिक आनंद को पहचाने में गंभीर चूक तो किया ही उसे यह समझने में भी चूक हुई कि कानून के ‘पक्षद्रोही’ होने पर भी भारत में खुशी की मात्रा में वृद्धि हो जाती है!

एक आशा भरी दृष्टि से मैंने घिस‌ई को देखा। सहसा मुझे इस सत्य पर दृढ़ विश्वास हो गया कि इसके जैसे लोगों के संख्या-बल से हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में जबर्दस्त उछाल लाया जा सकता है। लेकिन यह बेवकूफ इतने बड़े सत्य से अनजान विश्व की नजरों से ओझल हुआ यहाँ बैठा है। घिस‌इया को भरी नजर देख मैंने सोचा, इसे और इसके जैसे लोगों के संख्याबल से पश्चिमी देशों को परिचित कराया जाना चाहिए। लेकिन यह हो कैसे? उसके सामने खड़े-खड़े वह तरीका भी मिल गया।

मुझे ध्यान हुआ कि पश्चिमी देशों और उसमें भी अमेरिका में एनजीओ को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता है और इनकी खूब सुनी जाती है। किसी एनजीओ के मेम्बर से ही यह बात मुझे पता चली थी। उन्होंने कहा था कि एनजीओ के काम से उनकी साल में एक-दो बार अमेरिका-यात्रा होती है, इस वर्ष वे तीसरी बार पन्द्रह दिन के लिए अमेरिका जाएंगे। इसपर जब मैंने उन्हें विस्फारित नेत्रों से देखा तब उन्होंने सफाई देते हुए बताया कि अपने खर्चे पर नहीं, उनकी ऐसी एनजीओगीरी का खर्चा अमेरिका ही वहन करता है। मतलब ऐसी ‘गीरी’ से खुशी भी हांसिल की जा सकती है! बस इसी बात पर मैंने तय किया कि एनजीओ का गठन कराकर घिस‌इया को उसका ब्रांड‌एम्बेस्डर बनाया जाना चाहिए। वह दुनियां के देशों में घूम घूमकर बताए कि असली खुशी क्या चीज है! और किस कारण से भारत विश्व का सबसे अधिक खुशहाल देश है! यहाँ मैंने घिस‌इया की पर्सनालिटी पर भी गौर किया। उसकी पर्सनालिटी एक क्लासिकल भारतीय की है! उसे विदेशों में हाथों-हाथ लिया जाएगा और उसकी बातें भी विश्वसनीय मानी जाएंगी। अपनी खुशी में वृद्धि करते हुए वह दुनियां को समझाने में सफल हो सकता है कि हैप्पीनेस इंडेक्स में आबादी गुणे खुशी के गणितीय फार्मूले से विश्व का सिरमौर देश भारत ही हो सकता है। ऐसी समझाइश दे पाने की उसकी सफलता पर लगे हाथ विश्व गुरु बनने का हमारा दावा भी पुख्ता हो जाएगा।

लेकिन खुशहाली की मात्रा को जनसंख्या से जोड़ते ही चीन का डर सता गटया। अकसर भारत के विरुद्ध वह अपना वीटो पॉवर लेकर आ जाता है। हाल ही में उससे जनसंख्या की नंबर एक की गद्दी भी हमने छीना है। इससे उसे मिर्ची लगी है। लेकिन उसे पता है कि उसका वीटो पॉवर यहाँ काम नहीं आएगा कि डरकर भारतीय बच्चा पैदा करना बंद कर देंगे! शायद इसलिए भारत के विरोध में एक दूसरी चाल चलते हुए उसके राष्ट्रपति ने खुन्नस में कहा है कि जनसंख्या के मामले में मात्रा नहीं गुणवत्ता चाहिए! मतलब हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग के सुधार पर चीन एक दूसरे तरीके से अड़ंगा लगा सकता है। वह कह सकता है कि भारत में खुशहाली की मात्रा भले ही ज्यादा हो लेकिन उसमें गुणवत्ता नहीं है‌। चीन के इस तर्क से मेरा गणित फेल हो सकता है। उसकी गुणवत्ता वाली चाल की काट क्या होगी, यह सोचते हुए मैं अपना सिर खुजलाने लगा कि सहसा घिस‌इया की आवाज सुनाई पड़ी,

“का गुरू! का सोच रहे हो?” एकदम नार्मल फैमिलियर आवाज थी उसकी।

“कुछ नहीं, गुणवत्ता की..” कहते-कहते मैं चुप हो गया।

“अरे गुरू! आपसे का छुपाना, ई असली है अऊर तेज भी..दम मारै की इच्छा है का?” घिस‌इया की ओर हाथ ले जाकर हँसते हुए कहा।

“इसकी नहीं यार, गुणवत्ता वाली चाल की…” मेरी यह बात पूरी होती कि बीच में ही वह बोल उठा,

“अरे गुरू..कुछ‌ऊ न कहो..बस एक्क‌इ दम लिहे से सारी चाल बदल जाए..अइसा मस्त करे कि यह दुनियां बेकार..!”

“बस..बस घिस‌ई! काट मिल गई…!! अच्छा चलते हैं।”

वह कुछ समझता इसके पहले ही मैं उससे पिंड छुड़ाकर वहाँ से निकल लिया था। अब तो वाकई में मैं चिंतामुक्त था! क्योंकि इस परमानंद में जब संसार ही असार है तो यह घिस‌इया भी असार है! ओवरऑल हैप्पीनेस इंडेक्स की रेटिंग और इसमें भारत की रैंकिंग भी असार हैं! फिर काहे का इसपर माथापच्ची करना और क्यों, है न?

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.