गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

सच से कोई जुदा न हो जाए,
झूठ का सिलसिला न हो जाए।

खामखां आ गया हूंँ महफिल में,
अब मज़ा किरकिरा न हो जाए।

जिससे नज़रें बचाए फिरते हो,
उससे ही सामना न हो जाए।

राह पे सचकी चल के झूठों के,
पांव में आबला न हो जाए।

दूर मंज़िल से कहीं पहले ही,
खत्म ये रास्ता न हो जाए।

भूलकर के यहाँ खुदाई को,
आदमी ख़ुद ख़ुदा न हो जाए।

फिर ज़माने में ‘जय’ तेरे – मेरे,
इश्क़ का *तज़किरा न हो जाए।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*तज़किरा = चर्चा

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से