कविता

तलाश

राक्षस सदैव निगलते रहे हैं

ऋषि-मुनियों और सत्पुरुषों को,

चलता रहा है यह सिलसिला आदि काल से,

परम्पराओं के बेड़े बढ़ते रहे हैं

सत्, त्रेता और द्वापर युग से,

आज तो कलियुग है,

अब दिखते हैं हर कहीं ये

नई-नई शक्लों में

आदमी का मुखौटा लगाए,

आदमखोरों के अभ्यारण्य में

भूलभुलैया भरे जंगल-जंगल में

मचा है शोर दिन-रात

बहुरुपियों, बिजूकों, तमाशबीनों,

मदारियों, जमूरों से लेकर

झूठे-फरेबियों और आतंकियों का,

और आदमी है कि

लगातार खाता जा रहा है धोखा

इन्हें देख-सुन और अनुभव कर,

मुखौटों के इस जंगल में

तलाशता है आदमी ‘आदमी’को

और इसी खोज में

गँवा बैठता है

खुद की आदमीयत

या

डग बढ़ा लेता है

उस दोराहे की ओर

जहाँ से फूटते हैं रास्ते

विद्रोह अथवा पलायन के।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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