बाल कविता

मछलीघर

बना कांच का मछलीघर 

मैं रहती उसके अंदर

उसमें भरा हुआ है पानी 

जिसमें करती मैं मनमानी 

खूब तैरती हूँ हरदम 

नहीं सताता कोई गम 

आती रहती स्वच्छ हवा 

स्वस्थ रहूँ मैं बिना दवा 

सहेलियाँ मेरी कुल आठ 

सबके अपने-अपने ठाठ 

विद्युत का रंगीन प्रकाश 

करा रहा सुख का आभास 

हर दस दिन में बदले पानी 

कभी न भोजन की हैरानी 

रंगबिरंगा है संसार 

दर्शक देख, जताते प्यार 

बच्चे मुग्ध,बजाते ताली 

उनकी बढ़ जाती खुशहाली 

यहाँ न है शिकार का डर 

सुखद सुरक्षित अपना घर 

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र 

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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