हास्य व्यंग्य

मेरी पत्नी का शृंगार प्रेम

मेरा नाम श्यामसुंदर है। मेरी पत्नी का नाम निर्मला है। वह सीधी सादी गाय की तरह है। उदार ह्रदय है। पवित्र आत्मा उसके अंदर निवास करती है। मायके और पति के प्रति विशेष समर्पण है। शृंगार के प्रति विशेष स्नेह है। शृंगार किये बगैर नहीं रह सकती है। शृंगार प्रेम मायके से उपहार स्वरूप भेंट में जो मुझे झेलने के लिए मुफ्त में मिला है। शृंगार का संपूर्ण खर्च की जिम्मेदारी मेरी है। सोलह शृंगार न करने के लिए मैंने कहा कि तुम बिना शृंगार में खूबसूरत चांद सी दिखती हो। मैं ऐसे ही काम चला लूंगा। मेरा स्नेह बिल्कुल कम नहीं होगा। मैं एक समर्पित योद्धा की तरह तुम्हारे चक्षु का रसास्वादन बिल्कुल ऐसे कर लिया करूँगा। तुम भयभीत मत हो। बगल में ताक झांक नहीं करुंगा। मेरा इस तरह का प्रवचन उसे बहुत खराब लगा। दो दिन तक बोली नहीं। जैसे हृदय पर वज्रपात हुआ हो। 

     उसके शृंगार का महीने का लगभग दो हजार का खर्च आता है। हर माह के प्रथम दिवस पर उसके दाहिने हाथ में रख देता हूँ। हाथ में रखते वक्त असह्य वेदना उठती है मेरे ह्रदय में। पैसा पाते ही वह खुश हो जाती है। मन प्रफुल्लित हो उठता है। मेरे प्रति स्नेह भाव प्रकट करने लगती है। दो हजार देने पर यह भाव मिल जाये इससे बड़ा सौभाग्यशाली और कौन हो सकता है। कोई शृंगार का सामान बेचने वाला निकलता जरूर उसको बुला लेती। एक एक सामान देखती। जी भर कर देखती। जी भर खरीदारी करती। शृंगार का कोई सामान छूटता नहीं था। 

         सुबह मेरे उठने से पहले उसका शृंगार हो जाता है। जब मैं उठता हूँ तो बिल्कुल सजी धजी मिलती है। हल्की मुस्कान के साथ स्वागत करती है। मेरा पैर छूती है। वह भगवान जैसा मानती है। उसकी आस्था विश्वास से जुड़ी हुई है। वह मुझे ईमानदार समझती है। मैंने उससे पूछा कि तुम इतना शृंगार के प्रति समर्पित रहती हो यह क्या राज है। उसने पवित्र हृदय पर हाथ रखकर कहा कि यह शृंगार इसलिए मैं करती हूँ ताकि मेरे समीप रहो। किसी पर स्त्री के मायाजाल में न फंसो। मेरे इसी शृंगार का प्रतिफल है कि आप सिर्फ हमारे हैं। मेरे प्रति आप समर्पित रहते हैं। आपका चरित्र उज्ज्वल है। अब शृंगार करने का रहस्य समझ लिया कि उसका प्रेम कितना गहरा है। किसी भी हालत में वह मुझसे जुदा नही हो सकती। 

— जयचन्द प्रजापति

जयचन्द प्रजापति

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