कविता

प्रकृति का दर्द 

सारा पानी चूस रहे हो क्यूँ नदी   समन्दर लूट रहे हो
प्रकृति संग कर रहे अत्याचार बंद करो प्रकृति पे वार

पर्वत सागर का मन रोता क्यूँ करते हो काम ये खोटा
प्रकृति की सुन मानव पुकार प्रकृति है जीवन आधार

नदियों का सीना फाड़ दिया बालू निकाल घाव दिया है
 बदल    दी सूरत नदियों का यार बंद करो ये अत्याचार

सागर के पेट भरा  है कचरा जल जीवन पर मड़राया खतरा
बदल गया मानव का व्यवहार चुप क्यूँ है     जालिम सरकार

प्रकृति के प्रकृति के साथ अन्याय बंद हो शोषण अध्याय
प्रकृति को खुद से जीने दो पहाड़        जंगल मत रोने दो

गंगा यमुना अमृत की धारा जीवन का बना है सहारा
गंदगी से मत कर अपमान गंगा जल अमृत के समान

बाँध बाँध कर राह है रोका नदियाँ हर जख्म सह ना टोका
अब तो प्रकृति का रोक संहार अब मानव तुम रोक प्रहार
एक दिन ऐसा भी आयेगा पेय जल ना पृथ्वी पे     पायेगा
प्रदुषण पर लगा लगाम प्रकृति संग मत बन           हैवान

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088