हास्य व्यंग्य

अतिथि तुम कब जाओगे ?

अतिथि चाहें कितना भी प्रिय क्यों न हो,इसरार करने पर आया हो,जिसके बिना हमारा काम न चले पर थोड़े दिन ही अच्छा लगता है।ज्यादा दिन रह जाए तो बोझ बन जाता है।उससे उकताहट होने लगती है और मन यही कहने लगता है,”अतिथि तुम कब जाओगे?”

अब आप ही बताओ,कोई भी आपके घर महीने भर से ज्यादा टिक जाए,जाने का नाम ना ले तो कैसा महसूस करोगे? यहां तो सिर्फ मै ही नहीं,मेरे अडौसी पड़ोसी,बल्कि पूरा शहर ही दुखी हो चला है।कोई सीधा सादा हो,तब भी कुछ समय बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन रात दिन परेशान करने वाले से कौन खुश रह सकता है भला?

जानते हो,तुम्हारे आ जाने से हमारा बाहर आना जाना बाधित हो गया है,किसी से मिलने जाना तो दूर की बात है,बाजार भी नहीं जा पा रहे।तुम्हारे रहने से बहुत काम लंबित पड़े हैं।चाय पकौड़े बनाते खिलाते थक गई अब तो।सबके पेट भी जवाब देने लगे।डॉक्टरों की मौज आ रही है बस।मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है।

अरे बाबा, मै तुमसे वापिस जाने की नहीं कह रही,मेरी इतनी औकात भी नहीं है लेकिन बस इतना आग्रह कर रही हूं कि थोड़े दिन आस पास के शहरों में,मेरे मायके और ससुराल में भी घूम आओ, वहां भी तुम्हारे पहुंचने से ना सिर्फ रौनक आ जायेगी बल्कि सब खूब प्रसन्न हो कर स्वागत करेंगे।छप्पन भोग ना सही पकौड़ी,कचौड़ी,खीर,हलवा पूरी जैसे हमने बनाई थी वैसे वहां भी सब बना कर तुम्हें भोग लगाएंगे,तुम्हारा गुण गायेंगे।तुम्हें शायद नहीं पता कि वे लोग कितनी बेसब्री से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं,पालक पांवड़े बिछाए बैठे हैं। कम से कम उन्हें निराश मत करो।वैसे तुम्हारी यही आदत बुरी है,कहीं तो जम कर ठहर जाते हो,इतने दिन कि लोग दुखी हो जाएं और कहीं नागा कर के लोगों को निराश करते हो।बदलो यार यह बुरी आदत।सबके साथ समभाव रखना कब सीखोगे?।

तुम्हारी दूसरी आदत और भी ज्यादा बुरी और कष्टप्रद है,वह यह कि अकेले नहीं आते हो।अपने साथ अन्वांछित बुरे साथियों को क्यों ले आते हो। वे चुपचाप नहीं बैठते,तांडव मचाने लगते हैं,लगभग सभी घरों में।केमिस्ट और डॉक्टर को छोड़कर सभी पीड़ित हैं उनसे।नाम सुनकर ही रोंगटे खडे हो जाते हैं और खांसी जुकाम की संगत के बिना तो तुम दो कदम नहीं चल सकते,एकाध के नाम तो बोलने में भी मुश्किल आती है जैसे कांजेंकटीवाईटिस,जीभ लडखड़ने लगती है,बाकी मलेरिया, डेंगू, टाईफाईड।ये जब जकड़ लेते हैं तो साल भर का खाया पिया सब निकल जाता है (कमाया हुआ,बचत किया हुआ भी) पहले बेटे को हुआ,फिर खाना बनाने वाली को,फिर धोबी को।अब रात रात भर जाग कर दवा देते,और पथ्य बनाते मेरी कमर टूट गई।अब मै ही बची हूं खून पीने के लिए।

पिछले माह यानी जून की 23 तारीख से आकर बवाल मचा रहे हो,प्रभो अब तो बक्श दो।अब तो दो दिनों से रेड अलर्ट भी हो गया।इतना सम्मान मिल गया,बहुत है,अब पिंड छोड़ दो। सिर्फ़ मै ही दुखी नहीं हूं।हम लोग तो समर्थ हैं, कम से कम झोपड़पट्टी वालो पर दया करो इंद्र देव।उनके घर छोटे,परिवार बड़ा है।रोज कुआं खोदते हैं तब दाना पानी नसीब होता है, कहां से ब्लड टेस्ट करवाएं,दवा खरीदें?बोलो तो?

— पूर्णिमा शर्मा

पूर्णिमा शर्मा

नाम--पूर्णिमा शर्मा पिता का नाम--श्री राजीव लोचन शर्मा माता का नाम-- श्रीमती राजकुमारी शर्मा शिक्षा--एम ए (हिंदी ),एम एड जन्म--3 अक्टूबर 1952 पता- बी-150,जिगर कॉलोनी,मुरादाबाद (यू पी ) मेल आई डी-- Jun 12 कविता और कहानी लिखने का शौक बचपन से रहा ! कोलेज मैगजीन में प्रकाशित होने के अलावा एक साझा लघुकथा संग्रह अभी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है ,"मुट्ठी भर अक्षर " नाम से !