लघुकथा

मालिकाना हक

बेटे को जेल से छुड़ाने के लिये जमानत के पैसे एवं वकील के फीस का इंतजाम नहीं हो रहा था । वसुधा एक आखिरी कोशिश करने से पहले अपने त्याग एवं समर्पण, जो उसने मैके वालों के लिए की थी, उसे याद करने लगी ।

पांच भाई-बहनों में वसुधा सबसे बड़ी थी,उसकी शादी में माँ का उत्साह देखते ही बनता था । हर रश्मों-रिवाज में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थीं । ढोलक की थाप पर शाम के संगीत के समय माँ ऐसे नाचती, मानों सुध-बुध खो कर मीरा कृष्ण दीवानी हो गई हो । दामाद के स्वागत के लिए तरह तरह के हाथ से बुने स्वेटर, कशीदाकारी किये हुए चादर एवं तकिये बनाई थी ।  उसके पति को सासू माँ से इतना लगाव हो गया कि, उन्हें सब घर-जमाई कह कर चिढाते थे । नियति को शायद कुछ और ही स्वीकार था । वसुधा की खुशियों को ग्रहण लग गया।

उसकी शादी के दस महीने बाद ही माँ को बच्चेदानी का कैंसर हो गया। वसुधा पर ही नहीं बल्कि पूरे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट गया। दो महीने में ही माँ चल बसीं, वसुधा भी पेट से थी, सबने कहा माँ, बेटी के कोख से पुनः वापस आकर अपने घर संसार में रौनक ले आईं हैं । कुछ हद शायद सब सही कहते थे, पिताजी की लाडली पीहू सदैव उनके पास ही रहती थी । वसुधा भी अपने पिता की खुशी की खातिर स्वयं को पीहू की माँ नहीं बल्कि अपने छोटे भाई-बहनों की माँ बना बैठी ।

वक्त का पहिया आगे बढ़ता रहा अपनी तीनों बहनों की शादी में जी खोल कर अपने पति की कमाई लुटाई । इतने पर भी संतोष नहीं हुआ,भाई को डोनेशन देकर मेडिकल में दाखिला करवाई । माँ की याद में एवं भाई-बहनों के प्यार में कब वह अपने कोखज़ाये को भी समिधा बना डाली, इसका अहसास तक उसे नहीं हुआ । पीहू की पढ़ाई-लिखाई में भी कसर रह गई, नतीजतन अच्छा लड़का मिलने से रहा । एक छोटे से परचून दूकानदार को अपना दामाद बना ली ।

बेटी तो परायेघर चली गई, पर बेटा गलत संगत में पर कर नशे की पुड़िया के खरीद-फरोख्त में स्वयं भी नशेड़ी बन गया। पति का व्यवसाय भी पूंजी खत्म होने से मंदा पर गया था । आये दिन घर में कलह होते थे, एक दिन पिता जी उसे बुलाकर कहने लगे – “बेटी वसुधा; अब तुम अपनी गृहस्थी संभालो, तुम हमारे लिये एवं अपने भाई-बहनों के लिए बहुत कुछ की हो, आगे भी जब भी जरूरत पड़ेगी, माँ बन कर ही उन्हें संभालना , फिलहाल अब अपना घर-बार संभालो ।”

पिता को नहीं कह पाई – कौन सा घर और कैसा परिवार ? पति पत्नी में महीनों तक बोल चाल बंद रहती है,एक किराये के कमरे में किसी तरह हम दोनों पति-पत्नी एवं जवान बेटा रहते हैं। काश पिताजी यही कहते कि– बिटिया तुमने अब तक सारी जिम्मेदारी मैके की निभाई, अब मैं अपनी जिम्मेदारी निभाऊंगा । यह घर तेरा है और तुम इस घर की स्वामिनी हो ।

चुपचाप मैके की दहलीज सत्ताइस सालों बाद छोड़ कर पति के पास अपनी गृहस्थी का सर्वनाश अपने हाथों कर लौट आई थी । क्या करूं, किस अधिकार से मदद मांगने जाऊं ? बहन बन कर या माँ बन कर ? 

तंद्रा भंग हुई, पति उसके पास चुपचाप आकर बैठ गए थे और कहने लगे,– “वसुधा गलती हम दोनों की है, मैं भी तो घर और ससुराल में फर्क तुम्हें नहीं समझा पाया । अपना नसीब भी खराब है ।”

“नहीं जी; नसीब को दोष मत दिजिये, दोषी मैं हूँ और मैं ही सब ठीक करूंगी ।”

“तुम क्या कर सकती हो ?”

“बस आप देखते जाइये, आज तक मैं अपना फर्ज निभाती रही, वह सबने देखा है अब मैं अपने अधिकार का उपयोग करूंगी ।”

ऐसा कहते हुए वसुधा ऑटो रिक्शा लेकर मायके आ गई। आते ही पिता से बैंक लॉकर की चाभी मांगी । पिताजी आश्चर्य चकित हो कर पूछ बैठे- “चाभी तुम्हें क्यों चाहिए ? बैंक में तो तुम्हारी माँ के गहने हैं सिर्फ़ , तुम्हें उन गहनों का क्या काम ?”

“पिताजी; जब मैं माँ बन कर अपने भाई-बहनों को संभालती रही तो आपने एक बार भी मुझे नहीं समझाया कि, शादीशुदा हो अपनी गृहस्थी संभालो ।”

“मतलब ?”

“कुछ नहीं पिताजी, आज तक मैं प्यार और फर्ज समझ कर सबको संभालती रही, अब अधिकार समझ कर माँ के गहनों को बेच कर पति के व्यवसाय को संभालने में उनकी मदद करूंगी और सबसे पहले अपने बेटे को जेल से छुड़ा कर घर लाऊंगी ।”

“ले…कि…न…वह जेवर तो मैं अपनी बहू को उसकी सास की निशानी के तौर पर देने वाला था ! तुम नहीं ले सकती ।”

“पिताजी सिर्फ जेवर ही नहीं, इस घर में भी मुझे मालिकाना हक चाहिए ।”

— आरती रॉय.

*आरती राय

शैक्षणिक योग्यता--गृहणी जन्मतिथि - 11दिसंबर लेखन की विधाएँ - लघुकथा, कहानियाँ ,कवितायें प्रकाशित पुस्तकें - लघुत्तम महत्तम...लघुकथा संकलन . प्रकाशित दर्पण कथा संग्रह पुरस्कार/सम्मान - आकाशवाणी दरभंगा से कहानी का प्रसारण डाक का सम्पूर्ण पता - आरती राय कृष्णा पूरी .बरहेता रोड . लहेरियासराय जेल के पास जिला ...दरभंगा बिहार . Mo-9430350863 . ईमेल - arti.roy1112@gmail.com