मुक्तक/दोहा

सास बहू

झेल रही जो घर के भीतर, बहुओं के तीखे बोलों को,

उनसे जाकर पूछो सखियों, दहक रहे शब्दों के शोलों को।

तरस रही आँखें जिनकी, बच्चों के संग कुछ समय कटे,

अहम् भुलाकर चाह कर रही, बहुओं के संग हिंडोलों को।

पहले सास बुरी होती थी, ऐसा सबकी सास बताती,

अब बहुओं का कब्जा घर पर, मुश्किल जान बचानी है।

अपनी माँ के गीत सुनाती, बेटे को भी सास ही भाती,

भाभी ख्याल रखे सास का, खुद सासू से मुक्ति पानी है।

एक पक्ष दिखलाया हमने, जहाँ बहुओं की मनमानी है,

कुछ पीड़ाएँ उनकी देखी, जहाँ बहुओं की नादानी है,

सास ननद आराम करें और दिन भर बहु को नाम धरें,

बहू काम मे झौंकी जाती, माँ बेटी की सीख सुहानी है।

बहू बन निज घर में आयी, उसको भी सम्मान मिले,

घर के सारे निर्णयों मे, उसके विचारों को मान मिले।

बदल गया है दौर पुराना, घर में बहुयें ही पिसती थी,

नये दौर में कदम मिलाती, बहुओं को पहचान मिले।

— अ. कीर्तिवर्द्धन