लेख

शिक्षक दिवस मनाने का औचित्य?

भारत में 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परंपरा चली आ रही है। परंपरा के पालन में हम भारतवासी अंधभक्त हैं। बिना कारण को जाने परंपरा को निभाते रहने की हमारी फितरत रही है। नई पीढ़ी परंपराओं के प्रति कुछ अधिक श्रद्धावान नजर नहीं आती किंतु वह भी परंपराओं का निर्वाह अपने मनोरंजन के लिए करते हुए परंपरा की खिल्ली उड़ाती हुई दिखाई देती है। बाजारवाद ने भी परंपराओं का बाजारीकरण कर दिया है और परंपरा बाजार में बिकती हुई और व्यक्ति और सामाजिक जीवन से विदा होती हुई दिखाई देती है।
महापुरूषों की जयंतियाँ भी इसी प्रकार मनाई जाने वाली परंपरा मात्र बन गई हैं। बिना यह जाने कि जिस महापुरुष की जयंती हम मना रहे हैं, वह जयंती क्यों मना रहे हैं? समाज के लिए उनका योगदान क्या था? वे समाज को कैसा बनाना चाहते थे? उनकी अपनी भावी पीढ़ियों से क्या अपेक्षाएँ थीं? हम उनका सम्मान नहीं अपमान कर रहे होते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार पति-पत्नी के समर्पण के लिए पत्नियों द्वारा रखा जाने वाले करवा चौथ का व्रत, व्रत न रहकर एक बाजारू उत्सव बन गया है। वह धनी महिलाओं व पुरूषों के लिए मनोरंजन व महँगे उपहारों के प्रदान करने व दंभ का दिन बन गया है। कुँआरी लड़कियाँ भी आनंद के लिए इस उत्सव में भागीदारी करने लगी हैं। यहाँ तक कि अपने पति की हत्या की योजना और उसका सफल क्रियान्वयन करने वाली महिलाएँ भी इस मनोरंजन उत्सव का आनंद लेती हुई देखी जा सकती हैं।
एक दिन मेरे एक मित्र का फोन आया कि फलां कर्मचारी स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में भाग लेने के कारण सीसीएल(क्षति पूरक अवकाश) की माँग कर रहा है, क्या किया जाना चाहिए? मुझे एक विद्यालय के स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम का स्मरण हो आया, किस प्रकार वह केवल कनिष्ठ विद्यार्थियों तक सीमित रह गया था। जिन विद्यार्थियों में वरिष्ठ होने का दंभ था, उन्होंने अपने आपको आयोजनों से दूर रखा। यही नहीं कार्यक्रम में अध्यापकों की और से बोलने वाले शिक्षक भी विद्यालय के सबसे कनिष्ठ व संविदा कर्मी थे। मैं आश्चर्य चकित रह गया। यह वही दिवस है, जिस दिन के लिए सैकड़ों वर्षो तक हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था। अनगिनत लोगों ने अपना बचपन व जवानी खपा दी और असंख्य लोग शहीद हो गए। आज उनके वंशजों के लिए स्वतंत्रता दिवस एक छुट्टी मनाने का अवसर मात्र रह गया है! कक्षा 10, 11 व 12 के विद्यार्थी को स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रमों में भागीदारी करने में शर्म की अनुभूति होती हैं! महाविद्यालयों में तो औपचारिक ध्वजारोहण ही हो पाता है। अध्यापक स्वयं उसमें उत्साहपूर्वक भाग लेने की अपेक्षा छुट्टी के रूप में उपयोग करना चाहते हैं। हम किस प्रकार के नागरिक तैयार कर रहे हैं?
भारत को सात वार, नौ त्योहारों का देश कहा जाता रहा है। इसके पीछे सामाजिक मूल्यों को जिंदा रखने व विकास करने का दर्शन रहा है। परंपरा के अनुसार किसी दिवस को मनाने का उद्देश्य उस विशिष्ट दिवस से जुड़ी हुई यादों को स्मरण करते हुए व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में उन जीवन मूल्यों को बनाए रखने के प्रयास करना है। वर्तमान में हमने परंपराओं का बाजारीकरण कर दिया है या फिर हमारी तर्कशीलता ने उन पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। किसी उत्सव, जन्मदिवस या बलिदान दिवस के दिन उसके महत्व पर उसके द्वारा प्राप्त जीवन मूल्यों पर न चर्चा होती है और न ही हमारे काम में उसका कोई अहसास होता है। हम उसकी गंभीरता को भूलकर उसकी खिल्ली उड़ाते हुए देखे जाते हैं।
प्रसिद्ध विद्वान व संविधानविद डॉ अंबेडकर के जन्म दिन पर उनके संघर्षपूर्ण जीवन से सीख लेने या फिर उनके कार्यो के बारे में जानने और संविधान व कानून का पालन करते हुए अच्छे नागरिक के रूप में विकसित होने की अपेक्षा केवल मौजमस्ती के लिए केक काटने व छुट्टी मनाने वाले हम लोग उनका अपमान नहीं कर रहे तो और क्या है? सभी महापुरुषों की जयंतियों/बलिदान दिवसों के साथ हम यही तो कर रहे हैं। हम उनका अनुकरण करते हुए कर्मठ बनने की अपेक्षा उनके नाम पर छुट्टी मनाकर न केवल, उनका अपमान कर रहे होते हैं, वरन उनके द्वारा किए गए कार्यो का अनुकरण न करके उनकी खिल्ली उड़ा रहे होते हैं।
आज 3 सितंबर है। 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। इसी कड़ी में विद्यालयों में वरिष्ठ कक्षाओं के छात्र अपने से कनिष्ठ कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने का अभिनय करते हैं। मूलतः यह शिक्षण पेशे को सम्मान देने के लिए किया जाता है। वास्तविकता कुछ और ही है। शिक्षक के लिए यह दिवस एक प्रकार से आराम का और विद्यार्थियों के लिए मौजमस्ती का दिन हो जाता है। पिछले सप्ताह उत्तराखण्ड के एक सज्जन से वार्ता हो रही थी। अपनी आर्थिक मजबूरी का जिक्र कर वे बता रहे थे। किस प्रकार वे मजदूरी करके अपने घर को चला रहे हैं। बचपन से ही एक घर बनाने का प्रयास कर रहे हैं किंतु अभी तक पूर्ण नहीं कर पाए। उनके दो बच्चे हैं। दोनों का 600-600 रुपए मासिक शुल्क जाता है। विद्यालय के और खर्चे अलग। उन्होंने बताया कि जिस विद्यालय में उनका बच्चा कक्षा 12 में पढ़ता है, उसमें शिक्षक दिवस के नाम पर 700 रुपए प्रति छात्र लिए जा रहे हैं! वे दुखी होते हुए बता रहे थे, वे भी देने पड़ रहे हैं। विद्यालय में एक शादी की तरह आयोजन किया जा रहा है। 70-80 हजार तो टेंट पर ही खर्च किया जा रहा है।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि वे मजदूरी करके भी अपनी बच्ची को भी बराबर शिक्षा दिलवा रहे हैं। उन्होंने सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए अपनी बच्ची का नाम मिडडे मील खिलाने वाले विद्यालय में नहीं लिखवाया है। शिक्षा दिलवाने में लड़के-लड़की में कोई भेद नहीं कर रहे। किंतु साथ ही अपने शिक्षक होने पर और ऐसी व्यवस्था का अंग होने पर अच्छा नहीं लगा कि शिक्षक दिवस के नाम पर इस प्रकार पैसे की बर्बादी, जिसके पक्ष में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वयं कभी नहीं रहे। उनके कार्यो, उनके सामाजिक योगदान और उनके दर्शन पर चर्चा करने व अनुकरण करने के प्रयास की अपेक्षा, उसे मनोरंजन दिवस बनाकर उनके कार्यो व दर्शन का मजाक नहीं उड़ा रहे तो हम क्या कर रहे हैं? एक महान व्यक्तित्व के नाम पर एक मजदूर को 700 रुपए देने के लिए मजबूर करना, कहाँ तक उस व्यक्तित्व के चिंतन से मेल खाता है। यदि ऐसे छात्र को तथाकथित चंदे में छूट भी दे दी जाती है, तो भी क्या वह अपनी कक्षा के छात्रों के आगे हीनभावना से ग्रसित नहीं हो जाएगा। किसी भी महापुरुष की जयंती मनाने का यह तरीका संपूर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है!
लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात स्मरण हो आती है। हरियाणा के एक विद्यालय में इसी प्रकार का एक आयोजन था। अध्यापकों ने एक विद्यार्थी को रात्रि में छत पर एक विद्यार्थी को शराब का सेवन करता हुआ पकड़ा। जब उस विद्यार्थी के पिता को बुलाया गया, उसके पिता की आँखों से आँसुओं की धार रूक नहीं रही थी। उनका कहना था कि दिन भर मजदूरी करके इसे पढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। स्कूल में फीस लगेगी, यह कहकर 500 रुपए लेकर आया था। मेरे पास नहीं थे। किसी से उधार लेकर दिए थे। अभी भी किराए के लिए उधार लाया हूँ। कुछ पढ़ लिख लिया है तो मुझे तो कुछ समझता ही नहीं है। यहीं एक तथ्य और निकल कर आया। जिस दुकान पर उस विद्यार्थी को पढ़ाने वाले शिक्षक बैठते थे, उस दुकानदार ने एक राज की बात बताई, ‘सर! ये अध्यापक लोग यहाँ बैठकर शराब पीते हैं। खाली बोतलों को इकट्ठा करके मैं महीने के अन्त में बेच देता हूँ।’
मेरे यह कहने पर कि तुम ऐसा क्यों करने देते हो? उसका उत्तर था, ‘मैं क्या कर सकता हूँ। मैं इंकार करूँगा तो मेरी दुकान ही बंद करवा देंगे। वास्तविकता यही थी कि वे अध्यापक विद्यार्थियों को प्रेरित करके पैसे इकट्ठे करवाते थे और विद्यार्थियों के साथ मौजमस्ती करते थे। विद्यालय को फेशन प्रदर्शन का स्थल समझने वाले शिक्षक/शिक्षिकाएँ किस प्रकार विद्यार्थियों को निर्धारित गणवेश में आने के लिए प्रेरित कर सकेंगे। जींस-टी शर्ट पहनकर कक्षाओं में जाने वाले अध्यापकों, स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस को एक छुट्टी मानने वाले अध्यापकों से समाज अपेक्षा ही क्या कर सकता है? इस प्रकार के हम शिक्षक लोग शिक्षक दिवस पर एक लेखक, शिक्षक व दार्शनिक के कार्यो के बारे में जानकारी देकर अपने विद्यार्थियों को प्रेरित कैसे कर सकते हैं? जबकि हम स्वयं ही पढ़ने-लिखने की आदतों को छोड़ चुके हैं।
इस शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी शिक्षक साथियों से विनम्र अनुरोध है कि वे विचार करें कि क्या वे वास्तव में एक शिक्षक के रूप में ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं? कहीं अपने कर्तव्यों से भागकर केवल एक नौकर मात्र तो नहीं बन गए हैं? एक-एक कालांश को कम करवाने के लिए झगड़ने वाले शिक्षक को वास्तव में शिक्षण में मजा आता है? कक्षाओं में न जाने वाले शिक्षक वास्तव में ईमानदारी से स्वयं अपना ही आत्मावलोकन करने का प्रयास करके इस शिक्षक दिवस को उपयोगी बनाने और अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास कर सकते हैं? कल ही एक कक्षा 6 की बच्ची ने संपूर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया कि क्या हमें अध्यापक प्रार्थना सभा और कक्षाओं में हमारे संवैधानिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों और संस्कारों के बारे में और अधिक जानकारी देने का प्रयास नहीं कर सकते? छोटी बच्ची का यह प्रश्न कि बड़ी कक्षाओं के भैया भले ही पढ़ाई में 100 में से 100 अंक ले आएं किन्तु यदि वे विद्यालय गणवेश पहनकर आने की आदत विकसित नहीं कर पाए, तो ऐसी शिक्षा का क्या मतलब है? वास्तव में यह प्रश्न शिक्षक, शिक्षालय व शिक्षा प्रणाली पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है। शिक्षक दिवस पर हमें इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
यह एक यक्ष प्रश्न है कि वह बच्ची जो हमसे पाना चाहती है, क्या वह हमारे पास है? क्या हम उसे प्राप्त करने के प्रयत्न करते हैं? क्या हमने पिछले एक वर्ष में अपनी आय से पुस्तकों पर 1000 रुपए भी खर्च किए हैं? क्षमा करना प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खरीदी गई पुस्तकें इसमें सम्मिलित न करें। खरीदने की तो बात ही क्या है? पुस्तकालय से लेकर क्या हम हर महीने एक पुस्तक पढ़ने की आदत विकसित कर सकते हैं? यदि शिक्षक दिवस पर इस प्रकार के प्रयत्न करने के प्रयास करने का संकल्प करते हैं, तो निःसन्देह शिक्षक दिवस को हम औचित्यपूर्ण बना सकते हैं अन्यथा हमारे शिक्षक होने पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है! इस प्रकार केवल परंपरा और मौजमस्ती के लिए शिक्षक दिवस मनाकर तो हम एक समर्पित शिक्षक, लेखक व दार्शनिक का सम्मान नहीं अपमान ही कर रहे हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार केवल अध्यापक के रूप में नियुक्त होकर हम अध्यापक के रूप में सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो जाते, सम्मान अपने कर्मा के द्वारा अर्जित करना पड़ता है। क्या वास्तव में हम ऐसा कर रहे हैं। निःसन्देह हममें से ही कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं। उनका काम उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति का अहसास कराता है। हम सभी को आत्मावलोकन करना चाहिए हम कहाँ हैं? क्या हम भी अपने कर्तव्यों के द्वारा शिक्षक की गरिमा को प्राप्त करने के पथ पर आगे बढ़ने को तैयार हैं? तभी शिक्षक दिवस को औचित्यपूर्ण कहा जा सकेगा।

डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

जवाहर नवोदय विद्यालय, मुरादाबाद , में प्राचार्य के रूप में कार्यरत। दस पुस्तकें प्रकाशित। rashtrapremi.com, www.rashtrapremi.in मेरी ई-बुक चिंता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ो शिक्षक बनें-जग गढ़ें(करियर केन्द्रित मार्गदर्शिका) आधुनिक संदर्भ में(निबन्ध संग्रह) पापा, मैं तुम्हारे पास आऊंगा प्रेरणा से पराजिता तक(कहानी संग्रह) सफ़लता का राज़ समय की एजेंसी दोहा सहस्रावली(1111 दोहे) बता देंगे जमाने को(काव्य संग्रह) मौत से जिजीविषा तक(काव्य संग्रह) समर्पण(काव्य संग्रह)