मुक्तक/दोहा

शिक्षक

विपरीत के बीच, जो आस लिए चलता है, 

धार के विरुद्ध नदी में, नाव लिए चलता है। 

मृत्यु के सम्मुख, जीवन की आस जगा कर, 

शिक्षक भूखा रह कर भी, ज्ञान पुंज बनता है। 

कभी कहीं किसी हाल में, नहीं किसी से हारा, 

हर निराश टूटे मन का, सदा सहारा बनता है। 

दानव को भी मानव बनना, वह सिखलाता है, 

मझधार में भटकी नैया, वही किनारा बनता है। 

 — डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन