सामाजिक

बदलते परिवेश में रक्षाबंधन

रक्षाबंधन यानी रक्षा का बंधन। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हर वर्ष इस पर्व को मनाया जाता है।

    रक्षाबंधन मनाने के कारणों के अनेक उदाहरण हम सभी के संज्ञान में है। परंतु जहां तक बदलते परिवेश में रक्षाबंधन की बात है तो समय के साथ इस पवित्र पर्व पर भी बदलाव की बयार का असर पड़ा ही है।

         आधुनिकता और बढ़ती शैक्षणिक योग्यता ने भी अपना व्यापक प्रभाव इस पर्व पर डाला है।

    सबसे पहले मूहूर्त लेकर भी तरह तरह की सूचनाएं भ्रमित करती हैं। इसके लिए संचार माध्यमों और सोशल मीडिया का बहुतायत सुलभ सुगमता भी बड़ा कारण है। पहले के समय में हमारे पुरोहित घर आकर जो दिन तिथि बता देते थे वहीं पक्का हो जाता था। लोग हंसी खुशी से दिनभर पर्व का आनंद लेते थे और यथा सुविधा समय से रक्षाबंधन बंधवाते रहे।

       पुराने समय में स्वनिर्मित राखियां, कच्चे धागे प्रचलन में थे जबकि आज सब कुछ रेडीमेड हो रहा है, विभिन्न प्रकार की महंगी राखियां भी बाजारों में उपलब्ध हो जाती हैं,अब तो चांदी की राखियां भी काफी प्रचलन में आ रही हैं/गई हैं।

      पारंपरिक मिष्ठान गुड़, चीनी, बताशा, राब, घर के बने पेड़े आदि की जगह पर महंगी मिठाइयों का जबरदस्त कब्जा हो गया है।

       पहले के समय में हल्दी चावल का टीका करके बहनें राखियां बांधती रहीं, आज रोली कुमकुम चंदन और जाने क्या क्या प्रचलन में आ गया है।

         हमारे बुजुर्गों के समय में रक्षाबंधन का पारंपरिक स्तर था, छोटी बड़ी बहनों के पांव छूना हमारी सभ्यता का हिस्सा था,आज इसमें भी औपचारिकता घर कर गई है।और अब तो हलो हाय से काम चला लिया जाता है।

        पुराने समय में में रिश्तों को महत्व दिया जाता था, जबकि आज धन, दौलत , साधन संपन्नता, उसके स्तर को  अधिक महत्व दिया जाने लगा है। भाई हों या बहन यह विभेद दोनों की ओर अब जहां देखने को मिल ही जाता है।

        रक्षाबंधन पर भी विभिन्न क्षेत्रों परिवारों में भिन्न भिन्न तरीके से रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है। कुछ जगहों पर भाई के साथ  भाभी को भी उनकी ननदों द्वारा राखी बांधी जाती हैं, बेटियों द्वारा पिता को भी राखी बांधने का प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसा एकल संतानों और परिवारों की बढ़ती प्रवृति के कारण है। बहुत से बेटे बेटियाँ रक्षाबंधन से वंचित हो रहे हैं। संतान के रूप में बेटों की बढ़ती चाह और भ्रूण हत्या की अवांछित सोच भी इसके कारण माने जा सकते हैं।

       अब जबकि पुरुष और महिलाएं दोनों कामकाजी हों रहे हैं, तब डाक/कोरियर या आनलाइन माध्यम से राखी भेजना सामान्य बात हो गई है। इसी के साथ व्यस्तता के बहाने बहुत सी बहने राखियां भेजने को महत्व हीन समझती हैं, तो भाई भी बहुत उत्सुक नहीं दिखते । राखियां मिल भी जाएं तो बांधने तक को फिजूल समझते हैं और राखी मिलने की सूचना देना तो दूर बहन को फोन कर स्नेह आशीर्वाद देने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाते। बहुत सी बहनें भी केवल अर्थ लाभ/उपहार के लिए ही राखी की औपचारिकता निभाने लगी हैं, तो भाई भी आनलाइन धन/ उपहार भेजकर/भिजवा कर  रिश्ते / पर्व की औपचारिकता निभा कर खुश हो जाते हैं।

        वर्तमान समय में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है, वो यह कि अपने मिलने जुलने वालों , सहयोगियों में भी खून के रिश्तों से इतर भी रक्षाबंधन बांधकर नये भावनात्मक/आत्मीय रिश्तों को धरातल पर उतारने का चलन बढ़ रहा है। जिसमें कुछ तो जब तक साथ हैं तभी तक निभा पाते हैं, फिर जैसे दूर हुए, रिश्ता खत्म। तो कुछ वर्षों तक निभा लेते हैं, तो कुछ जीवन भर जीवंत बनाए रखने का खुद से प्रयास ही नहीं करते, बल्कि अपने जीवन तक तो निभाते ही हैं, तो कुछ में ये मभावनात्मक रिश्ते अगली पीढ़ी में में महत्व पाते हैं, ऐसा तभी होता है जब दोनों के एक दूसरे के परिवारों से जुड़ते जाते हैं, चूंकि दोनों के द्वारा अपनी सगी बहन सगे भाई की तरह समय समय पर तीज त्योहारों में महत्व पाते हैं, और परिवार के अन्य सदस्यों से अपनों की तरह घुल मिल जाते हैं, जिसमें परिवार की महिला सदस्यों का योगदान प्रमुख होता है।

ऐसे भावनात्मक रिश्तों में कुछ ऐसे भी रिश्ते जुड़ जाते हैं, जिससे एक दूसरे को भाई बहन की कमी की अहसास तक मिट जाता है, और कहीं न कहीं ऐसे भावनात्मक रिश्तों से उन्हें संबल भी मिल जाता ता है। हालांकि ऐसे रिश्तों में एक डर भी छुपा होता है,जो होना स्वाभाविक भी है विशेष रूप से बेटियों के मां बाप के लिए।  बहुत बार लड़के लड़कियां/महिला पुरुष  रक्षाबंधन की आड़ में अमर्यादित गुल खिलाने से भी पीछे नहीं रहते या यूं कहें कि वे अपनी मनमानी के लिए मां बाप  परिवार समाज की आंखों में धूल झोंकने की पृष्ठभूमि रक्षाबंधन की आड़ में पहले से ही तैयार कर लेते हैं।

        आभासी माध्यमों से बहुत से भावनात्मक रिश्तों की नींव पड़ रही है जिसमें महिला/पुरुष खुलेमन और पवित्र भाव में एक दूसरे के घरों तक भी आते जाते हैं। हालांकि आभासी रिश्तों में डर और अविश्वसनीयता का प्रभाव ज्यादा रहता है।अपवाद स्वरूप ही सही मगर ऐसे रिश्तों को मजबूत करने में रक्षाबंधन की भूमिका उपयोगी साबित हो रही है।

        बदलाव की पृष्ठभूमि में रक्षाबंधन पर भी औपचारिकताओं की मार कम नहीं पड़ रही है।

      आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि बदलते परिवेश के साथ रक्षाबंधन भी बदलाव के दौर में तेजी से बदल रहा है। 

*सुधीर श्रीवास्तव

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