कविता

बेहया सच्चाई

अरे भाई कब से समझा रहा हूंतुम्हें गुमराह होने से बचाने के लिए नाक रगड़ रहा हूंपर तुम तो बड़े बेशर्म हो यारसच्चाई के बड़े लंबरदार  हो सरकार।अच्छा है मेरी सलाह मत मानोजब मुंह की खाओगेतब मुझे याद कर पछताओगे।तब मैं तुमसे पूछूंगाक्या मिला सच्चाई का दामन थाम करकौन सा भंडार या ऊँची कुर्सी पा गएसच्चाई का बेसुरा राग गाकर।अपनी फटेहाल हालतबाप दादाओं का वही पुराना मकानखटारा साइकिल, अभावग्रस्त चलती जिंदगीबच्चों का मन मारने की नियतबीबी की हर फरमाइश अधूरीलोगों को छोड़ो, अपनों से भी बढ़ती दूरीतुम्हें अपना चाचा, ताऊ कहते शर्माते तुम्हारे ही परिवार के बच्चेसगे रिश्तेदार भी दूर का बता किनारा कस रहे हैंतुम्हें तो सब आइना ही दिखा रहे हैं।पर तुम पर तो भूत सवार हैईमानदारी और सच्चाई कासत्यवादी बन हरिश्चंद्र को भी पीछे छोड़ने का।मेरी शुभकामनाएं तेरे साथ हैंबस तेरी मेरी यह आखिरी मुलाकात है,अब नहीं आऊंगा कभी तुमसे से मिलनेऔर न  समझानेजब तक तू सच्चाई का वटवृक्ष बना रहेगा।बस अब तो तब ही आऊंगाजब तू दुनिया से विदा हो जाएगा,तेरा कफ़न भी मैं ही लाऊंगाक्योंकि मुझे पता है कि तेरी कमाई से तेरा कफ़न भीतेरी बीवी नहीं खरीद पायेगीउसके लिए भी मोहल्ले वालों के आगे हाथ फैलाएगीतेरी ईमानदारी के किस्से सुनाएगीतब जाकर कुछ बेवकूफों की सहानुभूति पायेगीऔर किसी तेरी लाश भीजैसे तैसे श्मशान तक पहुंच पायेगी,तेरी सच्चाई भी तेरे साथ जल जायेगी।और तू भुला दिया जाएगाकल कोई यह भी नहीं कहेगा कितू इस दुनिया में आया था,क्योंकि तब यह बेहया सच्चाईकिसी और को बलि का बकरा बनाएगी।

*सुधीर श्रीवास्तव

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