किस_विध_लूँ_तेरी_थाह
जो आ जाऊँ तो मूक उधर
जाने को कह दूँ तो बेखबर,
कैसे समझूँ जज्बात प्रिय
किस विध लूँ तेरी थाह प्रिय|
इठलाती बलखाती एक नदी
फिर भी प्यासी जैसे कई सदी,
मिलने की दरिया से चाह नहीं
समझो क्या है प्रवाह प्रिय
किस विध लूँ तेरी थाह प्रिय|
कहते थे लौट के आऊँगा,
दिल खोलकर दिखलाऊंगा,
पलकें देहरी को ताक रही
अनिमेष वहीं पर झांक रही,
अपलक निहारूँ राह प्रिय
किस विध लूँ तेरी था प्रिय|
मन की वीणा के तार हो तुम,
कर दो झंकृत झंकार हो तुम,
गूंजेगा फिर वही साज प्रिय
किस विध लूँ तेरी थाह प्रिय|
असीमित अनंत अपरिभाषित
अव्यक्त महाकाव्य सी,
रच कर फिर एक महा काव्य
बन जाओ कालिदास प्रिय,
किस विध लूँ तेरी थाह प्रिय|
— सविता सिंह मीरा