कविता

द्वैष दुर्भाव

हमारे बड़े बुजुर्ग,संत महात्मा औरहमारे धर्म ग्रंथ हमेशा यही बताते सिखाते हैद्वैष दुर्भावना से दूर रहो समझाते हैं।पर उन्हें शायद पता नहीं यामहज औपचारिकता निभाते हैं कि अब कलयुग का जमाना हैनीति नियम, सद्भाव तो अब महज बहाना हैसच कहूं तो द्वैष, दुर्भाव, निंदा नफरतऔर अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार संगपीठ में छूरा घोंपने का जमाना हैविश्वास की ओट में धोखा देना जिसे नहीं आयाउसके लिए आज धरती पर रहना बड़ा मुश्किल हैकोई कहीं भी रहें सत्यवादी बनकरइज्जत सम्मान की क्या बात करुँआज कोई उसे भाव भी कहाँ देता?संस्कार, सद्भाव, ईमानदारी और ईर्ष्या द्वैष की बातेंमहज कहने सुनने में अच्छी लगती हैं,आज जो इन्हें जीवन में उतार लेता हैउसकी सबसे ज्यादा दुर्गति होती है।आज के समय में जो जितना ज्यादा द्वैष, दुर्भाव, निंदा, नफरत के भाव रखता हैवही सबसे ज्यादा मजे में रहता हैऔर सबसे ज्यादा मान सम्मान पाता है,उल्टे सीधे धन कमाकर अपनी तिजोरियां भरता हैं कलयुग के इन सिद्धांतों का जो अनुसरण करता हैवही सबसे अच्छा कहलाता हैऔर वही पूजा भी जाता है।सत्यवादी बनने का रोग जिसे हो गयावो दर दर की ठोकरें खाता फिरता हैंऔर अभावों में जीवन गुजारता है,आज कलयुग में वो ही तमाशा बन जाता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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