स्वास्थ्य

प्राण ऊर्जा (ऑक्सीजन) का भण्डार देशी नस्ल की गाय से निर्मित घी

देशी गाय के लक्षण एवं विशेषताएँः-
देशी गाय का मतलब जिसकी पीठ पर कूबड़ ;भ्नउचद्ध होता है, जिसका आकार पिरामिड जैसा होने एवं जिसकें कंधे से जुड़ी हुई सूर्य-केतु नाड़ी होती है। सूर्य केतु नाड़ी सूर्य किरणों के द्वारा रक्त में स्वर्णक्षार बनाती है। जिसके कारण देशी गाय के घी में पीलापन होता है एवं गाय का घी उत्कृष्ट रसायन बन जाता है। उसमें विशिष्ट औषधिय गुण आ जाते हैं। विदेशी नस्ल की जो गायें कूबड़ वाली नहीं होती, वे केवल दुधारू पशु होती है। शुद्ध देशी नस्ल की गाय में सर्दी-गर्मी सहन करने की अद्भूत क्षमता होती है। उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता विदेशी नस्ल की गायों से अधिक होती है। देशी गाय का बछड़ा जन्म के 2-3 घण्टों में ही उछलने-कूदने लगता है। देशी गाय चारे, पानी, सेवा में कमी होने पर भी दूध देती है। जन्मता बछड़ा 100 गायों के बीच अपनी मां को पहचान लेता है। गाय बहुत संवेदनशील होती है। इस कारण बछडें को देख उसमें दुहने के पश्चात् भी वापस दूध आ जाता है। गौशालाओं में गाय की सेवा करने वालों को श्वसन सम्बन्धी रोग होने की प्रायः संभावना नहीं होती। गाय के निरन्तर सम्पर्क में रहने से तपेदिक जैसे रोगों में राहत मिलती है। गाय को प्रेम से सहलाने एवं उस पर हाथ फैरने से रक्तचाप बराबर रहने लगता है। पक्षाघात के कारण यदि हाथ और पैर में शून्यता आ जाती है तो रोगग्रस्त भाग पर गुड़ का पानी लगाकर गाय की जीभ फेरने से चेतना आने लगती है। ऐसे अनुभूत प्रयोग हमारी गौशाला में हो रहे हैं। अतः इस आलेख में जहां कहीं भी गाय का उल्लेख है उसका संदर्भ भारतीय नस्ल की देशी गाय से ही होता है, विदेशी नस्ल की गायों से नहीं। गाय एक चलता-फिरता अस्पताल, दवाईयों का खजाना, दूध के माध्यम से एक पूर्ण पौष्टिक आहार पूर्ति कर्ता, पर्यावरण एवं प्रदुषण के लिए वायु शोधक उत्पादन का कारखाना है। गाय 24 घण्टें ऑक्सीजन देती है। अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में एक गाय अकेले ऑक्सीजन और अन्य उपचारात्मक और रोग प्रतिरोधक तत्त्वों से लाखों रूपयों का आर्थिक सहयोग देती है। आयुर्वेद के चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांङ् गहृदयम् जैसे अनेक प्रमुख ग्रंथों में घी द्वारा उपचार का विशेष विवरण मिलता है। आयुर्वेद में तो सही विधि द्वारा बनाये गए गाय के घी की तुलना सर्वरोगनाशक अमृत से की गई है।
औषधिय गुणवता वाला घी बनाने की विधिः-
इंजेक्शन लगाकर दोहन दूध में गाय के प्रति वात्सल्यता का अभाव होने से तथा दूध से क्रीम अथवा मलाई निकालकर बनायें गये घी में शत-प्रतिशत औषधिय गुण नहीं होते, अपितु ऐसे तैयार घी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है। आजकल बाजार में देशी गाय के घी के नाम पर गाय का देशी घी बतलाकर भी बेचा जाता है। अतः शुद्ध घी प्राप्त करने हेतु सजगता आवश्यक है।
उपचार हेतु उपयोग में लिए जाने वाले घी का मतलब देशी नस्ल की गाय से प्राप्त दूध को धीरे-धीरे धीमी आंच पर गरम कर, ठण्डा कर, दही बनाकर बिलोवणा द्वारा उसके मक्खन से घी प्राप्त करना। ऐसा घी ही अधिकाधिक औषधिय गुणों वाला होता है। यदि ऐसा घी जिन गायों के दूध से प्राप्त किया जाता है, यदि वे जंगल के गोचर भूमि में चरती हो अथवा उन गायों को पौष्टिक एवं मौसम के अनुकूल संतुलित आहार दिया जाए तथा दूध प्राप्त करते समय और बिलोवणा करते समय मंत्रोचारण अथवा संगीत का वातावरण रखा जाए तो ऐसा घी और अधिक चमत्कारी गुणवता वाला औषधिय बन जाता है। आलेख में जहां कहीं भी घी का उल्लेख हो, उसे बिलोवणा से प्राप्त देशी गाय के शुद्ध दूध से प्राप्त घी ही समझे अन्य घी से नहीं।
अच्छे स्वास्थ्य हेतु ऑक्सीजन की आवश्यकताः-
षरीर को निष्चित अवधि के लिए आत्मा के रहने योग्य बनाये रहने की क्षमता हेतु जिस तत्त्व की प्रधान भूमिका होती है, उसे प्राण कहते हैं तथा उसकी ऊर्जा को प्राण ऊर्जा कहते हैं। प्राण के आधार पर ही मानव प्राणी कहलाता है। प्राण सूक्ष्म षरीर और स्थूल षरीर के बीच का संबंध सूत्र होता है, जो स्थूल षरीर को सूक्ष्म षरीर से जोड़ता है। वायु मण्डल में वायु के अन्दर जो ऑक्सीजन का तत्त्व होता है वही प्राण ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने में विशेष प्रभावी होता है। इसी कारण लोकभाषा में ऑक्सीजन को प्राण वायु भी कहते हैं।
जीवन के लिए ऑक्सीजन की आवष्यकता होती है। जिसका हम ष्वास के रूप में वायु के साथ सेवन करते हैं। अतः ष्वसन योग्य वायु जितनी स्वच्छ, षुद्ध, ऑक्सीजन युक्त होती है, उतनी ही हमें ऊर्जा अधिक मिलती है। इसके विपरीत अषुद्ध, प्रदुशित वातावरण में ष्वास लेने से हमारे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रातःकाल प्रदूशण की कमी होने के कारण वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। फेंफड़े ब्रह्माण्ड से प्राण ऊर्जा ग्रहण करने हेतु अधिकाधिक सजग और सक्रिय होते हैं। अतः प्रातःकाल घूमने, दौड़ने, जोगिंग एवं अन्य फेंफड़ों के व्यायाम से अधिक लाभ मिलता है।
जिस स्थान पर ऑक्सीजन का अभाव होता है, उस वातावरण में रोग होने की संभावना अधिक रहती है। जितना कम प्रदूशण उतनी वायु मंडल में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक रहती है। पेड़ पौधे ऑक्सीजन के अच्छे स्रोत होते हैं। अतः प्रातःकाल स्वच्छ वातावरण में भ्रमण करने वालों को सहज रूप से प्राण वायु मिल जाती है। जिस प्रकार बाह्य शरीर की शुद्धि के लिए स्नान की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ऑक्सीजन (प्राण वायु) की शरीर के अंगों, उपांगों, तंत्रों एवं अवयवों के विकारों को दूर कर स्वस्थ जीवन जीने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः यदि शरीर में ऑक्सीजन की आवश्यकतानुसार आपूर्ति कर दी जाए तो हमारा स्वास्थ्य अच्छा रह सकता है।
गौधृत चिकित्सा प्रभावशाली क्यों?
गाय का घी ऑक्सीजन (प्राण वायु) का खजाना होता है। अतः इसके सेवन एवं विधिवत उपयोग से शरीर में प्राण वायु की पूर्ति आसानी से की जा सकती है। जिससे प्रायः निष्क्रिय कोशिकाएं पुनः सक्रिय होने लगती है। परिणामस्वरूप संबंधित अंग, उपांग, अवयव पूर्ण क्षमता से अपना कार्य करने लगते हैं। व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है, जिससे रोग होने की संभावना कम होती है तथा रोग हो तो शरीर रोग मुक्त होने लगता है।
पूरे ब्रह्माण्ड में गाय ही एक मात्र ऐसा स्रोत है, जिसमें अधिकतम ऑक्सीजन बनाने वाले रसायन होते हैं। नवीनतम शोधों में पाया गया 10 ग्राम देशी घी से लगभग एक टन ऑक्सीजन पैदा की जा सकती है। जो अन्य किसी माध्यम से इतनी कम मात्रा के पदार्थ से असंभव होती है। देशी गाय का घी न केवल ऑक्सीजन का भण्डार ही होता है अपितु मस्तिष्क के लिए श्रेष्ठतम चिकनाई से परिपूर्ण एवं जोड़ों के लिए स्नइतपबंदज भी होता है। जो मस्तिष्क सहित सभी नाड़ी संस्थान एवं मांसपेशियों में चिकनाई बनाये रखता है, जिससे उनमें शुष्कता न बढ़े। मांसपेशियों में लचिलापन और जोड़ों में ग्रिसिंग होती रहे। मस्तिष्क की चिकनाई हेतु इससे अच्छा और सस्ता अन्य विकल्प प्रायः संभव नहीं होता। इसी कारण घी सेवन से वृद्धावस्था के लक्षण समय से पूर्व प्रकट नहीं होते। अतः गौधृत चिकित्सा कोरोना जैसे अन्य संक्रामक रोगों के उपचार एवं सुरक्षा का प्रभावशाली सस्ता, स्वावलम्बी, बिना किसी दुष्प्रभाव, अहिंसक, वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित, विश्वसनिय रोगोपचार का विकल्प होता है। देशी घी के उत्पादन में किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक रसायनिकों के न होने से उस घी में उपलब्ध विटामीन एवं अन्य पोषक तथा रोग नाशक तत्त्व अधिक गुणवता वाले होते हैं। शुद्ध घी में ैब्थ्। ;ैीवतज ब्ींपद थ्ंजजल ।बपकद्धए ब्स्। ;ब्वदरनंजमक स्पदवसमपब ।बपकद्धए ठनजलतपब ।बपकए व्उमहं.3ए4ए9 जैसे रसायनों तथा अच्छे गुणवता वाले विटामिन ए, डी, ई एवं के जैसे रसायानों का समावेश होता है। जिसका आधुनिक दवाइयों में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उपयोग होता है। घी में उपलब्ध ैब्थ्। के कारण घी के सेवन से वृद्धावस्था की प्रक्रिया मंद होने लगती है, ब्स्। की उपस्थिति से अनावश्यक चर्बी नहीं बढ़ती तथा विटामीन की उपस्थिति से आंखों में धुंधलापन, भारीपन, सूखापन, आंखों का फड़कना जैसी समस्याऐं होने की संभावना कम होती है।
उपचार हेतु घी का उपयोग करने की विधिः-
अलग-अलग रोगों में अच्छे परिणाम प्राप्त करने हेतु अथवा स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रथम तो घी का उपयोग नाक और नाभि में कुछ बूंदे डालकर किया जाता है। दूसरा रोगग्रस्त भाग पर घी लगाकर अथवा मालिश करके किया जाता है। अन्य विकल्प के रूप में घी का प्रत्यक्ष-परोक्ष मुंह से सेवन कर के भी किया जा सकता है। पुराने अथवा संक्रामक असाध्य रोगों में उपरोक्त सभी प्रकार से रोगोपचार हेतु घी का उपयोग लिया जाता है।
नस्य कर्म द्वारा रोगोपचारः-
नाक से गंध की अनुभूति होती है। गंध की अनुभूति हानिकारक वायु को अन्दर जाने से रोकती है। जैसे ही हमें किसी दुर्गन्ध की अनुभूति होती है। हम तुरन्त श्वास लेना बंद कर देते हैं और जल्दी से जल्दी वहां से दूर हो कर ताजी हवा वाले स्थानों में पहुँचने का प्रयास करते हैं। आयुर्वेद में नाक के माध्यम से औषधियों के प्रभाव को मस्तिष्क में पहुँचाकर उपचार करने की क्रिया को नस्य क्रिया कहते हैं। हमारे शरीर के सफल संचालन में प्रत्येक अंग, उपांग, तंत्र एवं अवयव की भूमिका होती है। परन्तु उसमें मस्तिष्क की अहम् भूमिका होती है। अतः यदि मस्तिष्क को ऑक्सीजन (प्राण ऊर्जा) का आवश्यक पोषण मिल जाए तो सारे शरीर का पोषण हो जाता है। नाक ही मस्तिक का प्रवेश द्वार होता है।
नाक में कुछ संवेदनशील मर्म बिन्दू होते हैं, जिनकी मस्तिष्क की प्रमुख नाड़ियों एवं रक्त शिराओं से सीधा सम्पर्क होता है। अतः नाक में डाला हुआ घी मस्तिष्क को सीधा प्राणवायु एवं चिकनाई पहुँचाता है एवं वहां प्राणवायु का प्रवाह बढ़ाने में सहायता करता है।
परिणामस्वरूप कॉलर बोन से ऊपर अधिकांश शारीरिक एवं मानसिक नाड़ी सम्बन्धी प्राण ऊर्जा के प्रवाह में आए अवरोध दूर होने लगते हैं। अर्थात् सबंधित अंग पुनः अधिक क्षमता से काम करने लग जाते हैं। इससे रोगों के उपचार में चमत्कारी परिणाम आते हैं। आंख की दृष्टि सुधरती है, कानों की श्रवण शक्ति ठीक होती है, नाक की गंध के प्रति संवेदनशीलता विकसित होती है। वाणी में स्पष्टता एवं चेहरे की सुन्दरता बनी रहती है। गले के ऊपर स्थित ऊर्जा चक्र (सहशास्त्र एवं आज्ञा चक्र) अथवा पीयूष, पीनीयल, थॉइराइड एवं पैराथॉइराइड, अन्तस्रावी गंथियों के स्राव आवश्यकता अनुसार बनने लगते हैं, जिससे पक्षाघात, मिर्गी, पागलपन जैसे रोग ठीक होते हैं। नकारात्मक सोच दूर होती है। अच्छी निद्रा आने लगती है। उद्दण्ड बालक शांत होते हैं। तनाव और क्रोध में कमी आती है, ध्यान एवं एकाग्रता की साधना सरलता से होने लगती है। निद्रा में बड़बड़ाने की समस्या दूर होती है। समय से पूर्व वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट नहीं होते।
नाभि में घी डालकर उपचारः-
शरीर में 72000 नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है, जिसका सम्बन्ध नाभि से होता है। गर्भस्थ बालक में नाभि के माध्यम से ही गर्भावस्था में विकास हेतु आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति होती है। नाभि में ही हमारी पैतृक ऊर्जा का संचय होता है जो बीज से वृक्ष की भांति हमारे सम्पूर्ण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अतः नाभि में डाले गये घी का प्रभाव पूरे शरीर के स्नायू तंत्र तक आसानी से पहुँच सकता है। उपचार हेतु नाभि में घी की चंद बूंदे डालकर चार-पांच मिनट अंगुली से नाभि में मसाज करने से लाभ मिलता है। नाभि के आस-पास जो विजातीय तत्व होते हैं, वे दूर होने लगते हैं तथा पूरे शरीर में प्राण ऊर्जा का आवश्यकतानुसार प्रवाह होने लगता है, जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है एवं सक्रामंक रोगों से सुरक्षा होती है।
घी से रोगोपचारः-

  1. घी के सेवन से अनेक रोगों में तुरन्त राहत मिलती है। पुराने असाध्य रोगों में उपचार हेतु कुछ समय लग सकता है, परन्तु उपचार हेतु लम्बे समय तक दवाईयों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं होती। बहुत से ऐसे रोग जिनका उपचार अन्य पद्धतियों में प्रायः संभव नहीं होता अथवा बहुत ही कठिन, मंहगा और दुष्प्रभाव वाला भी होता है। ऐसे अनेक रोगों में गाय के शुद्ध घी से उपचार करने पर प्रभावशाली परिणाम मिलते हैं। क्योंकि घी का उपचार न केवल शारीरिक स्तर पर कार्य करता है अपितु मानसिक एवं भावात्मक कारणों से होने वालें रोगों में भी चमत्कारिक परिणाम देता है।
  2. गोधृत विष नाशक होता है, जिसके सेवन से भोजन में उपस्थित हानिकारक पदार्थों एवं रसायनिक किट नाशकों के दुष्प्रभावों से सुरक्षा मिलती है। चंद मास तक विधिवत् घी का सेवन करने से मच्छरों के दंश एवं संक्रामक वायरस का शरीर पर प्रभाव नहीं पड़ता। शरीर में उपस्थित कैंसर की कोशिकाएं नष्ट होती है और नवीन पैदा नहीं होती। सर्पदंश द्वारा विष के प्रभाव को समाप्त करने के लिए शुद्ध घी जितना पी सकें तुरन्त पिलाना चाहिए। उसके बाद पीने योग्य गर्म पानी पिलाने से उल्टी एवं दस्त द्वारा शरीर से विष का निष्काशन हो जाता है। इसी प्रकार विषैले जानवरों के काटने से घी सेवन से लाभ होता है।
  3. गाय के घी में उपस्थित ब्स्। होने से पाचन संस्थान बराबर कार्य करता है। अनावश्यक चर्बी नहीं बढ़ती। अतः आम धारणा के विपरीत गाय के घी का सेवन करने से मोटापा कम होता है और दुबले व्यक्ति का वजन संतुलित होने लगता है, क्योंकि दुबलेपन और मोटापे का सम्बन्ध पाचन से होता है।
  4. मनुष्य के दिमाग में लगभग 20 प्रतिशत चिकनाई होती है। जिस प्रकार के चिकनाई की मस्तिष्क को आवश्यकता होती है, उसे शरीर अपने आप नहीं बना सकता। मनुष्य की आयु जैसे-जैसे बढ़ती है। मस्तिष्क की चिकनाई कम होने लगती है एवं वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। मस्तिष्क कमजोर होने लगता है। गाय का घी ऐसी चिकनाई का श्रेष्ठतम स्रोत होता है। नाक में घी की चंद बूंदें डालने से दिमाग में स्निग्धता बनी रहती है एवं वृद्धावस्था के लक्षण समय से पूर्व प्रकट नहीं होते। दो-दो बूंद गाय का घी नाक में डालते समय उसका तापमान शरीर के तापमान से कुछ अधिक होना चाहिए। गर्दन को थोड़ा पीछे कर आज्ञा चक्र के पास 4-5 मिनट तक रहने दें, श्वास नहीं खीचें, जिससे घी सीधा मस्तिष्क में पहुँच दिमाग की शुष्कता एवं चिकनाई की आपूर्ति कर सके।
    नाक में घी की चंद बूंदें नियमित डालने से पक्षाघात, ब्रेन हेमरेज, पारकिन्सन, मिर्गी, पागलपन, मानसिक अशांति, तनाव, अनिद्रा जैसे नाड़ी संस्थान से सम्बन्धित मस्तिष्क के रोगों में अच्छे परिणाम आते हैं। पक्षाघात के रोगियों को तो थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल से नाक में घी की दो-तीन बूंद डालनी चाहिए।
  5. गाय के घी की पैरों के तलवों, जोड़ों एवं शरीर के कमजोर भाग पर मालिश करने से न केवल मांसपेशियों और जोड़ों को उत्कृष्ठ चिकनाई मिलती है। अपितु उस स्थान की निष्क्रिय कोशिकाओं को पुनः सक्रिय होने की सुविधा मिलती है, जिससे शरीर का वह भाग ऊर्जावान बनता है और वहां से विजातीय तत्त्वों के दूर होने से दर्द में आराम मिलता है। मांसपेशियों में आया हुआ खिंचाव और शुष्कता कम होने लगती है। अतः जिन व्यक्तियों को पैदल चलने-फिरने में कष्ट होता है, यदि वे घी द्वारा उपचार करें तो संतोषजनक परिणाम आते हैं। घुटनों को बदली करवाने की आवश्यकता नहीं होती। जोड़ों का दर्द एवं मेरुदण्ड से सम्बन्धित स्लिप डिस्क, साईटिका, स्पोण्डोलायसिस आदि रोगों में सुरक्षा होती है और रोग होने की स्थिति में पुनः रोगमुक्त हुआ जा सकता है।
  6. नवजात शिशुओं के मालिश के लिए देशी गाय का घी सर्वश्रेष्ठ होता है।
  7. छाती पर घी की मालिश करने से श्वसन क्रिया सुधरती है एवं कफ की शिकायत दूर होती है।
  8. पैर के तलवों में घी की मालिश करने से दिमाग शान्त रहता है। नेत्र ज्योति सुधरती है।
  9. तरल पदार्थों को मुंह में चंद मिनटों तक घूमाने की प्रक्रिया को आयुर्वेद में गंडूस क्रिया कहते हैं। हमारे दांतों का हड्डियों से सीधा सम्बन्ध होता है। अतः शुद्ध घी के गंडूस से दांतों की जड़ों के माध्यम से सभी हड्डियों का स्नइतपबंजपवद हो जाता है, जिससे मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं। दांत मजबूत होते हैं एवं जोड़ों संबंधी रोग होने की संभावनाएँ कम होने लगती है।
  10. जब नाक एवं नाभि में उपयोग के साथ घी का सेवन मुंह से किया जाता है तो उससे रक्त में स्क्स् (खराब कॉलेस्ट्रोल) कम होने लगता है। गाय का घी शरीर में खराब कॉलेस्ट्रोल को कम करने में मदद करता है, जिससे रक्तप्रवाह संबंधी रोग होने की संभावना कम हो जाती है। रक्त संचार बराबर होने लगता है। त्वचा एवं हृदय सम्बन्धी रोग होने की सम्भावनाएं कम हो जाती है। कब्जी एवं एसिडिटी दूर होती है। पाचन सुधरता है तथा मधुमेह से राहत मिलती है।
  11. दूध में घी मिलाकर पीने एवं नाक में घी की चंद बूंदें डालने तथा रोगग्रस्त भाग पर घी लगाने से मुंहासें एवं चेहरे के दाग दूर होते हैं।
  12. एक चम्मच घी पीने से लगातर चलने वाली हिचकी बंद होती है। चालू स्वर तुरन्त बदलने लगता है एवं उल्टियां होना बंद हो जाता है।
  13. गर्म पानी में घी के साथ थोड़ा नमक मिलाकर पीने से सुखी खांसी में तुरन्त राहत होती है और गला ठीक रहता है।
  14. दूध में घी और मिश्री मिलाकर पीने से शारीरिक एवं वीर्यबल में वृद्धि होती है। चंद दिनों तक सेवन करने से अफीम, गांजा, शराब आदि दुर्व्यसनों से मुक्ति मिलती है।
  15. नाक में घी की चंद बूंदें डालने से स्मरण शक्ति ठीक रहती है। नाक की हड्डी अथवा मांसपेशियां बढ़ने से रूकती है। नाक से नकसीर आने वाली समस्या में तुरन्त लाभ होता है। उग्र बच्चें शान्त होने लगते हैं। सोच सकारात्मक होने लगती है। कान, आंख, मुंह, गले सम्बन्धी रोग ठीक होते हैं। एलर्जी से छुटकारा मिलता है। लगातार आने वाली छींकों की समस्या दूर होती है।
  16. घी के सेवन से शरीर के सभी यिन-यांग अंगों (हृदय-छोटी आंत, फेंफड़ा-बड़ी आंत, लीवर- पित्ताशय, गुर्दे-मूत्राशय, स्पलीन-आमाशय में आवश्यक प्राण ऊर्जा का संतुलन होने से सभी अंग एवं उनसे सम्बन्धित अवयव पूर्ण क्षमता से अपना कार्य करने लगते हैं। उनका शुद्धिकरण होने लगता है। शरीर ऊर्जावान बनता है। पैरों की कमजोर मांसपेशियों, पिण्डलिया, जोड़ों में जमा अनावश्यक तत्त्वों के कारण चलने-फिरने में जो थकान होती है, दूर होने लगती है। व्यक्ति आसानी से बिना थकान लम्बी दूर तक पैदल चलने लग सकता है।
  17. गर्भवती महिलाओं द्वारा घी सेवन से गर्भस्थ शिशु को पूर्ण पोषण मिलता है। भ्रूण के स्वस्थ विकास में इसकी अहं भूमिका होती है तथा बिना शल्य चिकित्सा प्रसव होता है। महिलाओं में प्रसव के बाद होने वाले परिवर्तनों जैसे शरीर का फूलना, कमर में दर्द, शरीर के वात का बढ़ना जैसे दुष्प्रभाव प्रायः नहीं होते तथा यौवन बनाये रखने के लिए गुणकारी होता है।
  18. घी की प्रकृति ठण्डी होने से उसके सेवन से लूं एवं गर्मी संबंधी रोगों से सुरक्षा होती है। अल्सर, बवासीर, फिशर जैसे रोगों में राहत मिलती है। बुखार एवं शरीर की आन्तरिक जलन शान्त होती है।
  19. घी का दीपक घर को सकारात्मक ऊर्जा से भरता है और वास्तु दोष दूर करता है।
  20. जले हुए फफोलों एवं घावों पर घी लगाने से तुरन्त आराम मिलता है।
  21. निद्रा में जाने से पूर्व नाक, कान एवं नाभि में घी की चंद बूंदें डालकर सोने से निद्रा में बोलने, डरने, खराब स्वप्न आने जैसी समस्याओं से राहत मिलती है। आवाज की गुणवता बढ़ती है। हकलाहट में भी लाभ होता है।
  22. नाक में घी डालने से एलर्जी दूर होती है।
    यह चिकित्सा प्रायः सभी प्रकार के रोगों को ठीक करने में सक्षम हैं। सीमित मात्रा में घी का सेवन करने से इस चिकित्सा में दुष्प्रभावों की संभावना प्रायः नहीं होती तथा पर्यावरण, प्रदुषण एवं संक्रामक वायरस से सुरक्षा होती है।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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