सामाजिक

असमंजस

आखिर ऐसा क्यों हो जनाब?जब भी मिलते होबड़े असमंजस में दिखते हो,आखिर खुद को कभी समझाते क्यों नहींजीने के अपने सिद्धांत बदलते क्यों नहींअपने जीवन के रंगढंग बदलते क्यों नहीं?इस असमंजस से जितना जल्दी होनिकल कर बाहर आ जाओ,बेवजह खुद ही नहींऔरों को भी बेवकूफ न बनाओ।माना कि बड़ा कटु अनुभव है तुम्हाराअपने और अपनों के साथ,पर इसमें तुम्हारा भी है पूरा हाथ,अपनी ही बोई फसल अब काट रहे होफिर भी दुनिया को गुमराह कर रहे हो,बड़े गुरुर में रहते हो जो हर समय तुमफिर भी दुनिया को दोषी ठहराकर खुद बड़ा पाक साफ बन रहे हो,घड़ियाली आँसू बहाकर सहानुभूति चाह रहे हो।पर अब तो बेनकाब हो चुके हो तुमहमारी नज़रों में भी आ गये हो तुम,गुमराह करते करते खुद गुमराह होकरसबसे बड़े बेवकूफ बन गए हो तुम।अच्छा है कि अब हम सब के दिमागी बल्ब रोशन हो गये हैंभगवान भला करें तुम्हाराहम सब तुमसे दूर हो रहे हैंतुम्हारे चक्रव्यूह में फँसने के बजायखुद को बचाने के लिए कमर कस चुके हैंतुम्हारे साथ रिश्ता रखकरहम भी बहुत कटु अनुभव कर रहे हैं,अब तुम अपना जानो समझोतुमसे हम रिश्ता भी तोड़ रहे हैं,अपने को आजाद कर रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921