कविता

कामयाबी

पीर बढ़ती ही गई पर हौसला ना कम हुआ,

दर्द की दहशत मिटाने बस हुनर मरहम हुआ।

कामयाबी का शजर बढ़ता तवक्कुफ़ से यहां,

सोचकर भी हाल सारा मन नहीं दरहम हुआ।

खूब हाला का सहारा रात दिन हमने लिया,

बावरा मन को बनाया ग़म न फिर भी कम हुआ।

 बदनसीबी को ज़माना  मानता अभिशाप है,

शब्द ये जड़ से मिटाने मन मिरा बरहम हुआ।

खूब हमने की मशक्कत तब फतह हासिल हुई,

वक्त जो विपरीत था वह वक्त अब अरहम हुआ ।

कामयाबी   जब न थी तब  ऐब लगते थे हुनर,

मंजिलें हासिल हुईं हर  ऐब तब हमदम हुआ।

लोग करते हैं मुहब्बत कामयाबी देखकर,

कामयाबी से मुहब्बत देख दम बेदम हुआ।

तवक्कुफ़ – देर से।

दरहम – तितर बितर 

अरहम – दयावान 

बरहम – आक्रोशित 

प्रदीप शर्मा

आगरा, उत्तर प्रदेश