यात्रा वृत्तान्त

अलौकिक आनंद का स्रोत : नियागरा जलप्रपात

‘नियागरा’ एक झरने का, एक नदी का या एक स्थान का नाम नहीं है, यह नाम है एक अलौकिक प्रवाह का, जीवन के परमस्रोत के साक्षात दर्शन का, और भव्य आनंदानुभूतियों का।
अंग्रेज़ी में नियागरा की वर्तनी नि+आगरा जैसी प्रतीत होती है। इसके नाम में दुविधा थी कि इसे निआगरा कहा जाए, नियागरा, नियाग्रा या फिर नायग्रा (जैसा कि अमरीकी उच्चारित करते हैं)। हमारे मन ने और हमारी हिंदी से भरी अंग्रेज़ी की समझ ने जवाब दिया कि इसे नियागरा कहा जाए। व्यक्तिवाचक संज्ञा कब उच्चारणों के आधीन हुई है, ऐसा सोचकर पहले तो इस कश-म-कश से बाहर निकले। इस विश्वप्रसिद्ध भौतिक-नक्श व प्राकृतिक आश्चर्य को देखने के मंत्रमुग्धकारी अनुभव को कैसे पाया जाए, इस का समाधान खोजा।
नियागरा अमेरिका में बफैल्लो शहर, न्यूयॉर्क राज्य, से 27 किलोमीटर दूर और कनाडा में टोरोंटो शहर, ओन्टेरियो राज्य से 120 किलोमीटर दूर, दो मैत्रीपूर्ण देशों की सीमा पर झरता है। हिम युग के अंतिम चरण में हिमाच्छादन के समय हिमनद के पिघलने से झीलों का निर्माण हुआ और ठोस से तरल स्वरूप में परिवर्तित अथाह जल ने एटलांटिक महासागर तक जाने के लिए अपना मार्ग नियागरा के ढलान को बनाया। तब नियागरा नदी और नियागरा निर्झरतंत्र का निर्माण हुआ।
इस प्रागैतिहासिक भू-वैशिष्ट्य को देखने के लिए बोस्टन से हमने एक कार किराए पर ली। हम एक परिवार और सवारी चार प्राणी थे। चारों ही ड्राइविंग की कला में दक्ष, तो 8 घंटे का सड़क मार्ग तय करना कठिन न लगा था। मैसाचुसेट्स, कनैक्टीकट, न्यूयॉर्क तीन राज्यों को पूरा पार कर 474 मील (763 किलोमीटर) दूर पहुँचना था। हमारे ही फोन में किलोमीटर में दूरियाँ बताने वाला गूगल का नक्शा, अमेरिका पहुँच, पूरी तरह लोकल होकर मीलों में दूरियाँ बताने लग गया। सुबह का नाश्ता-पानी निबटाकर करीब 10 बजे हम ट्यूक्स्बरी से नेशनल हाईवे 290 पर हो लिए। रास्ते में एक स्थान आया जिसको लिखा ‘वोरसेस्टर’ जाता है, पर पढ़ा या बोला ‘वोर्स्टर’ जाता है (ऐसा बेटी ने हमें बताया तो हिंदी भाषा पर गर्व हो आया कि उसमें उच्चारण की ऐसी कोई दुविधा न के बराबर है)। इसी वोर्स्टर से हमें 290 को छोड़कर नेशनल हाईवे 90 को पकड़कर दूर तक चलते जाना था। बीच में कुछ देर के लिए हम हाईवे 87 से भी गुजरे। अंत में 290 और 190 भी लिया।
दुबई के 12-12 लेन वाले महामार्गों के सामने एक बार को तो अमेरिका के 3-4 लेनधारी महामार्ग कुछ कमतर लगे। लेकिन जल्द ही वे हमें भाने लगे और दिलो-दिमाग पर छाने लगे। सड़कों के दोनों ओर फैली बेपनाह घनी हरियाली, ऊँचे-ऊँचे पेड़, दूर-दूर तक उठते-गिरते टीलेदार रास्ते हमसे अपना लोहा मनवाने लगे। सच! इतने बड़े देश में यातायात की इतनी सुदृढ़ व्यवस्था कोई आसान बात नहीं है। नैसर्गिक सौंदर्य को कैसे अनछुआ रखा गया है, देखने लायक था। सड़क के दोनों ओर कभी हरे पुते मैदान आते तो कभी गहराते-हरियाते जंगल। इतनी हरियाली देखकर याद आया कि किसी ने यहीं ‘आँख हरे में फूटने’ वाला मुहावरा रचा होगा। सर्दी आते ही, बर्फ़ पड़ते ही इस सारी हरियाली की जगह ठूँठों के झुंड ले लेते हैं।

रास्ते में पड़ने वाली ऊँचाइयों को पहाड़ी कहें या टीले…, उठान वाले क्षेत्रों में, जहाँ हवा का खूब रौब व मनमानी चलती है, बहुतायात में पवनचक्कियाँ दिखाई देती थीं। प्रकृति की स्वच्छंदता पर मनुष्य पहरे न बिठा पाया तो लाभ तो उठा ही सकता है। हम उन्हें कैमरे में बिठाने के लिए कार की स्क्रीन व खिड़कियों से तसवीरें उतारते। ऐसे बीसियों स्थान हमारे मार्ग में पड़े। शहर एक-दूसरे से इतने दूर-दूर बसे हुए हैं कि मीलों के फासले तय कर ही कोई किसी अन्य शहर में जाता है। जब कभी बस्ती वाले इलाके, महामार्ग के पास ही पड़ते तो दो घरों के बीच की हरी-भरी दूरी देख मन खिल जाता। हम भारत से आने वालों के लिए यह एक अजूबा ही है कि एक घर से दूसरे घर के बीच में इतनी-इतनी जगह खाली पड़ी हुई है। नियागरा फ़ॉल बनाने से पहले नियागरा नदी एक बहुत बड़े ‘ग्रांड आइलैंड’ का निर्माण करती है, (जिसे मेरे भूगोल ज्ञान के अनुसार डेल्टा प्रदेश भी कहा जा सकता है) प्रपातों तक जाने का मार्ग उस ग्रांड द्वीप से होकर ही जाता है। हम उस द्वीप में ‘साऊथ ग्रांड आइलैंड ब्रिज’ से घुसे और 7 मील बाद ‘नॉर्थ ग्रांड आइलैंड ब्रिज’ से उतरते ही जैसे ही एक घुमावदार मोड़ लिया कि नियागरा नदी हमारे साथ-साथ चलने लगी। ग्रांड आइलैंड के ये दोनों पुल भी नियागरा नदी के ऊपर ही बने हैं। नियागरा की निर्झरिणी गोट द्वीप, लूना द्वीप से झरती है और नदी इन तक पहुँचने से पहले रॉबिन्सन, बर्ड, ग्रीन द्वीपों के अतिरिक्त अन्य कई छोटे-छोटे द्वीपों से टकराती हुई गुज़रती है।
रास्ते में चाय-कॉफ़ी, खाने आदि के लिए रुकते-रुकाते करीब आठ बजे हम नियागरा पहुँचे। तो अपने पूर्व-आरक्षित आवास में जाने की बजाय नियागरा का चुम्बकीय आकर्षण हमें सीधा ही अपने पास खींच ले आया। हमने गूगल महाराज को ‘नियागरा फॉल्स स्टेट पार्क’ की पार्किंग में ले चलने का आदेश दिया। अमेरिका घूमने की योजना बनाने से पूर्व ही हमने बहुत कुछ जानकारी एकत्र कर रखी थी। सारे मुख्य क्रियाकलापों की टिकट भी पहले से वेबसाइट के माध्यम से खरीद रखी थीं। बहुत-से वीडियो इस स्थान के खँगाले थे। नियागरा जलप्रपात को लगभग हर दिशा से पूरा, वीडियो में हम देख चुके थे। इस कारण से एक आशंका यह भी थी मन में, कि वहाँ पहुँचकर सब कुछ तो देखा हुआ-सा लगेगा। कुछ नया लगेगा ही नहीं। स्टेट पार्क में कुछ ऐसी बात थी कि कार खड़ी करते-करते भी हमारी आँखें झरने के दिखने वाले छोटे-छोटे अंशों से हट नहीं पा रही थीं।

हम जल्दी-जल्दी नियागरा को देखने के लिए बने हुए चबूतरे तक पहुँचे और वहाँ से जो नज़ारा दिखा तो ऐसा लगा कि हम इस दुनिया से बाहर कहीं किसी असांसारिक लोक में पहुँच गए हैं। अमेरिका की ओर से गिरने वाले बड़े झरने को अमेरिकन फॉल और छोटे झरने को ‘ब्राइडल वील फ़ॉल’ (दुल्हन का घूँघट झरना) कहते हैं। इस छोटे ‘दुल्हन के घूँघट’ वाले झरने और ‘हॉर्स शू’ (घोड़े की नाल) झरने के बीच में ‘गोट’ नामक द्वीप है, और इसके और अमेरिकन फ़ॉल के बीच में ‘लूना’ द्वीप हैं। ये दोनों द्वीप अमेरिका की धरती व न्यूयॉर्क स्टेट का हिस्सा हैं। स्टेट पार्क के बरामदे से ही थोड़ा हिस्सा ‘हॉर्स शू फ़ॉल’ का भी दिख रहा था। हमारी साँसें थम गई थीं, धड़कनें रुकी हुई थीं। हम एकटक इसे निहारे जा रहे थे। अभी भी गिरते हुए झरने के शीर्ष से लगभग 200 मीटर दूर से देख रहे थे और तीव्र गति से बहते पानी से उड़ती हुई छींटें हमें झरने की भव्यता में नहला रही थीं। गर्मी के कारण भीगने से परहेज भी न था। सूरज अभी डूबा नहीं था। जुलाई में वहाँ 9 बजे के आस-पास ही सूर्यास्त होता है। हम दीवानों की तरह तसवीरों पर तसवीरें उतार रहे थे। जान गए थे कि यूँ ही नहीं यह दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे खूबसूरत महानिर्झर है।

नियागरा के तीनों झरनों को भरपूर देखने के लिए अमेरिका की ओर ही एक ‘नियागरा फॉल ओब्ज़र्वेशन टॉवर’ बनी है जो कि नदी पर बने आधे पुल के जैसी निर्मिति है। हम झटपट उस पर जा पहुँचे। वहाँ से जो नज़ारा दिखा और जो अहसास हुए वे गूँगी के गुड़ के समान ही केवल महसूस किए जा सकते हैं। झरनों में पानी के तेज़ बहाव के कारण उनकी ध्वनि भी खूब थी। उस ओब्ज़र्वेशन पुल पर सैंकडों पर्यटक थे और सारे ही झरने को अपनी आँखों के साथ अपने मोबाइल के कैमरे में सहेजने में मगन थे। पुल पर बाऊंड्री वाला हिस्सा मुश्किल ही खाली मिलता था कि बिना किसी अन्य व्यक्ति की रुकावट के तसवीर ली जा सके या चलचित्र निकाला जा सके। इस विशालकाय झरने को हम इतने करीब से, इतना साफ़-साफ़, साक्षात अपनी आँखों से देख पा रहे हैं, खुद पर विश्वास न आता था। वहीं थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुछ दूरबीनें भी अपनी पैनी नज़रें झरनों पर जमाए हुए थीं। उनमें डॉलर का सिक्का डालकर नियागरा के और पास का दृश्य देखा जा सकता है। 2-3 सिक्के बर्बाद करने के बाद भी हम उसका लाभ नहीं उठा पाए। यह कर्त्तव्य कैमरे की ज़ूम सुविधा ने निभाया।

रात्रि में कनाडा की ओर से ‘हॉर्स शू फ़ॉल’ पर रंगीन रोशनियों की क्रीड़ा का शो होता है। इतना लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी हमें कोई थकान नहीं थी। प्रकृति की विशुद्धता और स्वार्गिक दृश्यों ने हमारी थकान हर ली थी। हमने सतरंगी रोशनी देखकर ही वहाँ से हटने का निर्णय किया। पानी की तेज़ धार पर रंग-बिरंगी थिरकती झिलमिल रोशनियाँ प्रपात को और भी दर्शनीय बना रही थीं। प्रतीत होता था कि पूरी धरती जलधार के अवतरण का जश्न मना रही है या कि वारि होली खेलता हुआ आगे बढ़ा आ रहा है। करीब दस बजे तक हम अलग-अलग रंगों में नियागरा की अद्वितीय छटा को निहारते रहे। इतनी देर में भी भीड़ छँटने का नाम नहीं ले रही थी। जो आया, वह वहीं का होकर रह गया, जाने को मन ही न करता था।

अगले दिन सुबह फिर हम अमेरिकन फ़ॉल के पास पहुँचे और इस बार आते ही ‘मेड ऑफ़ द मिस्ट’ की पंक्ति में लग गए। इसकी टिकट पहले ही बुक करा रखी थी। यह 28 डॉलर प्रति व्यक्ति थी। उसकी रसीद दिखाकर टिकट काऊंटर से नई टिकट लेनी थी। लम्बी लाइन थी, लेकिन 5-6 काऊंटर कार्यरत होने से जल्दी ही नम्बर आ गया। जिस ओब्ज़र्वेशन टॉवर से कल नज़ारे निहार रहे थे, उसी पर लगी लिफ़्ट से हमें लगभग 170 फीट नीचे गिरती नदी के तले तक ले जाया गया।

पहले झरने को उसके गिरने के उद्गमस्थल से देख रहे थे आज उसके पतनस्थल तक देखने की बारी थी। भीगने से बचाने के लिए हमें नीले रंग के प्लास्टिक के पौंचू कर्मचारियों ने दिए। उन पर बड़ा-बड़ा ‘मेड ऑफ़ ट मिस्ट’ छपा हुआ था। ये पतले प्लास्टिक के बने थे। एक बार इस्तेमाल के लायक मजबूती थी। गर्मी के कारण सबने बोट में सवार होने से ठीक पहले ही इन्हें अपने कपड़ों के ऊपर पहना। यह दो डैक वाली एक बहुत बड़ी बोट थी, जिसका नाम ‘निकोला टेसला’ था। ऐसी तीन बोट यहाँ अमेरिका की ओर से चलती हैं। ये विद्युतचालित होती है और शून्य कार्बन उत्सर्जन का दावा करती हैं। यह काठ व स्टील की बनी हुई 90 फिट लम्बी और 33 फिट चौड़ी नाव थी जो एक बार में 500 यात्रियों को झरने के पास तक की सैर करा सकती है। इसकी खासियत है कि यह बेआवाज़ चलती है और चलने से तरंगे पैदा नहीं होतीं। पानी की धारा में अपना संतुलन बना के रखती है, लड़खड़ाती नहीं है और इनकी गति की दिशा को 360 डिग्री तक आसानी से घुमाया जा सकता है। इनका इतिहास 1846 से आरंभ होता है।

कमाल की बात यह थी कि बिल्कुल इसी तरह की नौका कनाडा की ओर से भी चलती है, जिसपर लाल रंग के पौंचू (पतली प्लास्टिक की बरसाती) दिए जाते हैं। 400-500 सवारियों के नीले-नीले पौंचू अमेरिका से आए होने का परिचय झरने को देते हैं और लाल-लाल बिखरे रंग से भरा बेड़ा कनाडा की ओर से आए होने का। प्रत्येक नैया अपने देश की सीमा में ही सफ़र तय करती है। इनका अनुशासन व सौहार्द्र सराहना की वस्तु है। झरनों का पूरा आनंद लेने के लिए हम ऊपर वाली डैक पर सवार हुए। झरने के नीचे पहुँचकर, ऊपर से गिरते हुए 320 मीटर चौड़े अमेरिकन झरने को देख अकल्पनीय रोमांच हो उठता है। यह झरना जहाँ गिरता है, वहाँ बहुत बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं, जिन पर गिरकर उछलते हुए पानी का दृश्य अत्यंत खूबसूरत है। यहाँ झरने की ऊँचाई 30-35 मीटर तक है।

फैरी और आगे बढ़ी और हम धीरे-धीरे हॉर्स-शू फॉल के घेरे में आने लगे। कुछ दूरी तक तो यह झरना झरने जैसा ही लगता था। नाव और आगे बढ़ी तो हम तीन तरफ़ से झरने से घिरे हुए क्षेत्र में थे। अमूमन छ: लाख गैलन (6,400 मीटर घन) प्रति सैकेंड पानी नियागरा फॉल से 70 मीटर नीचे गिरता है। इस एक तथ्य से ही पानी के गिरने की क्रिया-प्रतिक्रिया को समझा जा सकता है। इस प्रतिक्रिया से ही अथाह पानी गिरने के बाद ऊपर की ओर उड़ता है, जिससे हर समय वहाँ धुंध का सा भ्रम बना रहता है। इस पानी के आयतन, गति, प्रचंडता और धरती पर प्रहार से प्रभु शिव के शीश पर गंगा मैया के गिरने की तीव्रता का अनुमान लगाने में कठिनाई नहीं हुई।

सिर पर पाँव रख दौड़ता सरवर नीर ऐसा झर रहा था कि समस्त विश्व को बहाकर ले जाएगा। ऐसा लगा कि मानो घाटी में तूफान आ गया है। उड़ते हुए पानी का बवंडर उठ रहा था। उन छींटों की अधिकता और तीव्रता इतनी थी कि टिकना मुश्किल हो रहा था। आँख खोल झरने को देखना ही बड़ा मुश्किल था। सबके चश्मे, मोबाइल, पानी में भीग गए थे। तोयधार से उड़ते पानी की धुंध में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। ऊपर जल, नीचे जल, सामने जल, दाएँ-बाएँ जल ही जल; एक घबराहट की लहर-सी शरीर में दौड़ गई। बेड़े पर मजबूती से खड़े हुए, रेलिंग को थामे हुए भी स्वयं को जलनिमग्न-सा महसूस कर रहे थे।

दूर से बहुत-सी ऐसी फैरियों को आते-जाते देखा था कल भी और आज भी परंतु ऐसा लगता नहीं था कि नाव झरने के इतने करीब तक जाती होगी और ऐसे विचित्र अनुभव होते होंगे। छिटकी फुहार की बूँदों के थपेड़े ही इतने सशक्त थे कि सँभलना मुश्किल था। तब भान हुआ कि इस नौका को ‘मेड ऑफ़ द मिस्ट’ क्यों कहते हैं। हमने इसका हिंदी नामकरण किया- ‘फुहार की रानी’। कुछ ही देर में नाव ने दिशा बदलना शुरु किया और हम झरती फुहारों और नीहार से दूर होने लगे तो साँस में साँस आई। सबने अपनी ऐनकों और कमरों के लैंस साफ किए और तसवीरें लेने में फिर से जुट गए।

दूसरी बार हम ‘ब्राइडल व्हील’ और ‘अमेरिकन फ़ॉल’ के आगे से निकले। ‘हॉर्स शू’ के उग्र स्वभाव के सामने ये दोनों तुलनात्मक रूप से शांत प्रतीत हुए। दोनों झरनों के बीच के द्वीप पर भी मौजूद बहुत-से लोग इन के अद्वितीय सौंदर्य का पान कर रहे थे। उधर कनाडा की तरफ़ भी दर्शकों व पर्यटकों का मजमा लगा था। ऑब्ज़र्वेशन टॉवर के पास से गुज़रते हुए रेनबो ब्रिज के नीच से निकल कुछ और आगे तक गए और फिर यू-टर्न लिया। हर एक इंच से तसवीर ले सकते हैं, इतना सौंदर्य कण-कण में विराजमान है। वापस आते हुए हमें अमेरिकन फॉल के पास इंद्रधनुष दिखा। ‘मेड ऑफ़ द मिस्ट’ से उतरने के बाद हम झरने के और पास तक बनी सीढ़ियों पर गए। यहाँ अप्रतिम दृश्य उपस्थित हो रहा था। सर्वथा अलौकिक! आलोकित! विस्मयकारी! होश उड़ा देने को आतुर! होश में आते ही इंद्रधनुष के साथ बहुत-सी तसवीरें लीं गईं।

अमेरिका में इस समय बहुत से पर्यटक आते हैं। नियागरा सबसे बड़ा आकर्षण है। अत: यहाँ भारी भीड़ जुटी थी। सभी को इंद्रधनु के साथ तसवीरें लेने की व्यग्रता और इसके जल्द गायब हो जाने की आशंका थी। लोगों को इस दृश्य के पीछे बहुत उत्तेजित देख प्रसन्नता हुई। कुछ ही मिनटों में हमने पुन: सीढ़ियों से नीचे आकर तले से ऊपर जाने वाली लिफ़्ट ली और पार्किंग लॉट की ओर गए। आज ही हमें अमेरिका से कनाडा जाना था ताकि वहाँ से भी नियागरा का लुत्फ़ उठा सकें। दोनों देशों के बीच एक पुल ही पार करना था। इस पुल का नाम भी ‘रेनबो ब्रिज’ यानि इंद्रधनुष पुल है। शायद यहाँ से तीनों झरनों पर बनने वाले इंद्रधनुष स्पष्ट दृष्टिगोचर होते होंगे। वह शनिवार का दिन था तो पुल पर अच्छी- खासी भीड़ थी। कारें पंक्तिबद्ध रूप से अपनी-अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थीं। कनाडा का बॉर्डर पार करने के लिए बड़ी कार ही जा सकती है, ऐसा कहकर हमें बड़ी कार किराए पर दिलाई गई थी किंतु वहाँ हमने सभी तरह की कारों को सीमा पार की कतार में लगे हुए देखा। बहुत अलग अनुभूति थी दो देशों की सीमा पर बहते पानी के ऊपर पुल पर खड़े रहना। हम आकलन कर रहे थे कि राजनीतिक नक्शे के अनुसार पुल पर रुके हुए कौन-कौन से वाहन कनाडा की धरती पर कहलाएँगे और कौन से अमेरिका की धरती पर। यह मनोरंजक खेल था।

नियागरा से उठती तुषारबिंद का अद्भुत पल पुल से कैमरे में समेट लिया। इतनी देर में हमने नियागरा का इतिहास-भूगोल खँगालना शुरु किया। नियागरा में आने वाला पानी पीछे से चार झीलों से बहकर आता है। ये चार झीलें हैं- सुपिरियर, मिशिगन, ह्यूरॉन और एरी। एरी झील से बहता हुआ नियागरा नदी का पानी ओन्टेरियो झील में गिरता है। इस झील से बहता हुआ यह दो देशों के बीच बहता हुआ सेंट लॉरेन्स नदी में ढल जाता है। फिर सेंट लॉरेन्स की खाड़ी में मिलकर एटलांटिक महासागर में मिल जाता है। दोनों देशों की सीमा-रेखा सुपिरियर, ह्यूरॉन, एरी और ओन्टेरियो के पानी को आपस में बाँटती है मगर मिशिगन झील पूरी तरह से अमेरिका में ही आती है। ऐसे ही सेंट लॉरेन्स नदी भी कुछ दूरी तक दोनों देशों के बीच चलती है फिर कनाडा की तरफ़ मुड़ जाती है। यह इन दो देशों की कितनी बड़ी विवेकशीलता है कि ये चार झीलें, निर्झर व नदी आधी-आधी दोनों देशों में बँटी हुई है। वरन् यह कहूँगी कि दोनों देशों में बसी हुई है बिना किसी विवाद के।

लगभग 2 घंटे की चेकिंग, प्रश्नोत्तरी तथा चर्चा के बाद हम चारों को कनाडा की सीमा में प्रवेश दे दिया गया। इमिग्रेशन दफ़्तर में एक सुरक्षा-गार्ड सिख भाई हमें देखकर बहुत खुश हुए जैसे कोई अपना उन्हें मिल गया हो। प्रवासी भारतीयों की अनुभूतियाँ हमसे छुपी हुई न थीं। अपने देश का व्यक्ति भी अपने भाई जैसा होता है। इमिग्रेशन से निकलकर भूख से व्याकुल हमने सीधा खाने के लिए दौड़ लगाई। उसके लिए हमने ढूँढा पिज़्ज़ा-पिज़्ज़ा ‘सेंट कैथरीन्स’ में, जिसे ‘द गार्डन सिटी’ भी कहा जाता है।

यहाँ स्ट्रीट लाइट के खंभों पर फूलों की बड़ी टोकरियाँ लटकाकर प्राकृतिक सुषमा बिखेरी हुई थी। पेट पूजा कर फिर कार्यक्रम बनाया कि आज टोरंटो देख लिया जाए और कल का सारा दिन नियागरा की भेंट करेंगे। रास्ता 90 मिनट का था परंतु ट्रैफिक के कारण वह खिंच- खिंचकर 3-4 घंटे का हो गया तो हम बीच रास्ते से ही निवास पर लौट आए। शायद नियागरा हमें पुकार रहा था। नियागरा के आस-पास यह तीसरा दिन था। कनाडा में भी किनारे पर ‘नियागरा फॉल्स पार्क’ बना हुआ है। इसका दोदिवसीय ‘भ्रमण पास’ 79 डॉलर प्रति व्यक्ति की दर से ऑनलाइन ही उपलब्ध रहता है। इसमें कई भ्रमण सम्मिलित थे, जैसे- ‘जरनी बिहाइंड द फ़ॉल्स, नियागरा पार्क्स पॉवर स्टेशन’, टनल, व्हाइट वॉटर वॉक, व्हर्लपूल ऐरो कार, नियागरा की फ्यूरी, रेल यात्रा, बस यात्रा आदि। अमेरिका की तरफ खड़े हुए कनाडा के होटल और प्रसिद्ध स्काईलॉन टॉवर दिखाई देती थीं। यहाँ का नज़ारा ही कुछ और था। दोनों की सीमाओं का सौंदर्य एक-दूसरे से भिन्न होकर भी परस्पर पूरक था।

नियागरा पार्क्स पॉवर स्टेशन के ठीक सामने पार्किंग ग्राऊंड में हमने पूरे दिन के लिए कार खड़ी कर दी और पैदल ही नियागरा पार्क वैलकम सैंटर की ओर चल दिए। यह ‘फ़ॉल्स इनक्लाइन रेलवे’ के स्टेशन पर ही बना हुआ था। टिकट खिड़की पर हमने अपने ‘टूर पास’ दिखाए तो उस्पस्थित महिला ने हमारे लिए ‘व्हर्लपूल ऐरो कार’, ‘व्हाइट वॉटर वॉक’ तथा ‘नियागरा पार्क्स पॉवर स्टेशन’ के कालांश, जो भी उपल्ब्ध थे, बुक कर दिए। सभी सावधिक टिकटें लेकर हम ‘ग्रीन लाइन नॉर्थ’ स्टेशन पर पहुँचे और वहाँ से व्हर्लपूल ऐरो कार तक जाने के लिए बस लेनी थी। हर पंद्रह मिनट में यह बस चलती है। करीब दस मिनट बाद हमने बस पकड़ी। यह ‘वीगो’ बस कहलाती है और यह दो डिब्बों वाली बस थी।

दो डिब्बों के पर्देनुमा जोड़ पर 4 सवारियों के खड़े होने के लिए कमर को सहारा देने वाली खड़ी सीटें लगी थीं। स्थान का उपयोग और सुविधा, दोनों ही लाजवाब थे। चलती बस में से झरने के कई चित्र उतारे। बस ने हमें 5.5 किलोमीटर का मार्ग तय कर आधा घंटे में वहाँ पहुँचा दिया था। नियागरा फ़ॉल से गिरने के बाद विदर-घाटी में बहते हुए 5 किलोमीटर के बाद यह नदी एक समकोण बनाती हुई आगे बढ़ती है। कोण की नोक पर आते पानी का तेज़ बहाव वहाँ भँवर बनाता हुआ दिशा बदलकर आगे बढ़ जाता है जैसे किसी वाहन ने गोल चक्कर पर परिक्रमा कर सीधे हाथ का मोड़ ले लिया हो। इसी भँवर वाले स्थान के ऊपर तारों की पटरी पर एक बड़ा हिंडोला घाटी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाता है जिसे व्हर्लपूल ऐरो कार कहा जाता है। इससे आती धारा के भँवर में घूमने का दृश्य ठीक उसके ऊपर से देख सकते हो।

इस झूलती ट्रॉली में 20-25 लोगों के खड़े रहने लायक स्थान था। इसमें सुरक्षा के सारे प्रबंध थे। हर चक्कर में ऐरो कार कम्पनी का एक कर्मचारी सुरक्षा संबंधी हिदायतें देने और चाक-चौबंदी की देख-रेख के लिए था। हम इसकी सीमा के अंदर रहकर ही फ़ोटोग्राफ़ी कर रहे थे। कहीं गलती से मोबाइल हाथ से छूट गया तो अंतिम विसर्जन ही जानो उसका। उसके साथ ही अब तक की सारी यात्रा की तसवीरें ही स्वाह हो जातीं। हिंडोला दूसरी ओर रुका नहीं। जैसा गया था वैसा ही वापस आया। वापसी में ऐरो कार के कर्मचारी ने सभी सवारियों को दिशा बदलने के लिए कहा। उल्टे हाथ वाले सीधे पर आ खड़े हुए और सीधे हाथ वाले उल्टे पर। जबकि सम्पूर्ण धारा दोनों देशों में आधी-आधी बहती है, फिर भी ऐरो कार का पथ पूरी तरह कनाडा के हिस्से में बनाए रखा गया था, यह भी बात भी चकित कर देने वाली थी। यह एक रोमांचकारी अनुभव था।
इससे बाहर हम निकले तो अगला गंतव्य ‘व्हाइट वाटर वॉक’ था जो ऐरो कार स्टेशन से एक किलोमीटर ही दूर था। अगली बस आने में पंद्रह मिनट शेष थे। हमने बस का इंतज़ार करने की बजाए पैदल जाना ही ठीक समझा। मौसम भी इतना खराब न था। हमें नदी की धारा को देखते हुए चलना अच्छा लग रहा था। घाटी के ढलान पर प्रकृतिजन्य बहुत-सी वनस्पति उगी हुई थी जिसमें सेब के पेड़ बहुतायत में थे। छोटे-छोटे सेबों से लदे हुए ये पेड़ हमें रोकने में सक्षम हो गए। हमने कुछ सेब तोड़कर चखे। वे खट्टे थे, पर कड़वे नहीं थे। हम सेब खाते हुए आगे बढ़ते रहे। लगभग पूरे रास्ते सेब से भरी लताएँ सड़क की बाऊँड्री के ऊपर झूल-झूलकर हमें न्यौता दे रही थीं। रास्ते में एक थाई मंदिर ‘टेन थाऊज़ैंड बुद्धा सरिरा स्तूप’ भी दिखाई दिया। हमने सोचा कि अपने आज के गंतव्य पूरे कर इसके भी दर्शन कर लेंगे परंतु अवकाश न मिला। ‘व्हाइट वाटर वॉक’ में हमें लाइन में लगाया गया। थोड़े-थोड़े मनुष्यों को वहाँ के कर्मचारी लिफ़्ट में ले जाकर नीचे छोड़ के आते थे। नीचे पहुँचकर हमने पाया कि नदी की धारा के साथ-साथ लकड़ी के पुल पर चलने का मार्ग बनाया हुआ है। झक सफेद नदी की प्रवाह के साथ आप पुल पर चलते-चलते इसके इतिहास की जानकारी ले सकते हैं। पुल पर जगह-जगह बोर्ड लगाकर ऐतिहासिक-भौगोलिक- वैज्ञानिक जानकारियाँ लिखी गई हैं।

थकान होते हुए भी हमने रुकते-चलते अंत तक पुल की यात्रा की। वहाँ 5 मिनट विश्राम कर पुन: हिम्मत जुटाई और वहाँ से बाहर आकर भोजनालय की खोज की। कुछ दूरी पर क्वीन्स रोड पर ‘पराँठे वाली गली’ नाम का भारतीय रेस्टोरैंट है, ऐसा गूगल बाबा ने बताया तो हम उनके बताई राह का अनुसरण कर ठीक वहीं पहुँच गए। उसके पास ही ‘सेंटेनियल स्क्वैयर’ पर फव्वारे आदि से सुहावना वातावरण बनाया हुआ था। वहीं से हमने लौटते हुए नियागरा फ़्यूरी के लिए ‘वीगो’ बस ली। उसी के पास ‘जर्नी बिहाइंड द फ़ॉल्स’ का भी प्रवेश है। पहले इसे ही करने का निश्चय किया। इसके प्रवेश मंडप में लगी तसवीरें आकर्षित करने वाली थीं। धरती की सतह से बहती हुई नियागरा नदी ज़मीन के नीचे एक चौड़े विदर में गिरती है अत: हर बार धारापात के पास जाने के लिए एसकेलेटर द्वारा नीचे जाना होता है। यहाँ भी हमें पीले रंग के प्लास्टिक से बने पौंचू देकर छोटे-छोटे समूह बनाकर नीचे उतारा गया। धरती के नीचे पहुँचकर एक छोटी-सी सुरंग को पार कर जब हम बाहर पहुँचे तो हॉर्स शू फ़ॉल के एक छोर के बिल्कुल नीचे ही खड़े थे। इस स्थान से तीनों झरनों के सौंदर्य को निहारा जा सकता था।

झरने के बहुत पास होने से गिरते हुए पानी की बौछारें खूब हमारे ऊपर आ रही थीं। यहाँ दो तल वाला छज्जा बना हुआ था। हमने दोनों तल से सुंदर चित्र उतारे। सूरज की चमचमाती किरणों से उड़ते पानी की बूँदों पर आज फिर इंद्रधनुष दिखाई दे रहा था। यहाँ फ़ोटो स्टूडियो में झरने के साथ तसवीर खिंचवाने की भी व्यवस्था थी। 45 डॉलर में हमने दो तसवीर ले लीं। वापस आने की सुरंग पकड़ी तो पाया बीच में से एक और सुरंग झरने की धारा के ठीक पीछे भी ले जाती है। लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से उसे बाहर की ओर बंद कर रखा है। उसके थोड़ा पीछे ही आप तसवीरें ले सकते हो परंतु पानी की तीव्र गति के कारण कैमरे में अधिक कुछ कैद नहीं हो पाता।

यह पॉइंट पूरा कर हम नियागरा फ्यूरी के लिए गए। यह एक थ्री-डी थियेटर है। इसमें भी हमें एक हलके नीले रंग का पौंचू दिया गया। थियेटर में नियागरा झरने के निर्माण और इसके अन्वेषण की कहानी को चलचित्र के माध्यम से बताया गया था। इस झरने को तैर कर पार करने वाले साहसी या दुस्साहसी कारनामों के बारे में भी बताया गया। वास्तविक-सम त्रिदिक् अनुभूति के लिए बीच-बीच में दर्शकों पर फुहारें छोड़ी जाती थीं। बाकी सभी अति उल्लास से भरी चीज़ों के सामने यह उतना भाने लायक न लगा था।

अब मुख्य आकर्षणों में ‘नियागरा पार्क पॉवर स्टेशन’ तथा ‘टनल’ ही शेष थी। यह 500 मीटर दूरी पर ही थी। अत: हम वहाँ चल पड़े। यह एक बड़ा क्रियाशील पॉवर स्टेशन था। इसके अंदर बड़ी-बड़ी मशीनें और बैरल प्रदर्शित थे तो छोटे-से-छोटे विवरण को बारीकी से दर्शाया गया था। पॉवर स्टेशन की गुप्त ऐतिहासिक कथाओं को यहाँ उजागर किया गया था। कुछ हिस्सों में जाना प्रतिबंधित था। नियागरा के ये तीनों झरने अमेरिका में सबसे अधिक पानी का स्राव करते हैं। दिन में पर्यटकों के देखने के लिए इसके बहाव को प्रतिबंधित नहीं किया जाता अत: 168,000 मीटर घन पानी प्रति मिनट की दर से गिरता है। हॉर्स शू फ़ॉल के स्रवण की गति सबसे अधिक है। ये झरने अपने भरपूर सौंदर्य के साथ-साथ हाइड्रोइलैक्ट्रिक पॉवर के लिए भी मशहूर हैं। पॉवर संयंत्र के लिए रोक लगाने पर इसकी सुषमा को आँच आती है। अत: इसके मनोविनोद, आकर्षण, व्यवसाय और उद्योग सबको संतुलित रूप से बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है।

थोड़ी देर देखकर मशीनी विज्ञान में अधिक रुचि न होने और थकान होने के कारण मैं एक जगह बैठ गई और बाकी परिवार सब मशीनों को देख-समझकर वापस आया। हमारी टिकट में जो एक आकर्षण ‘टनल’ का था, उसमें जाने की लिफ़्ट इसी पॉवर स्टेशन के अंदर थी। अब इतनी प्रबल इच्छा तो नहीं थी लेकिन ‘जब आए हैं इतनी दूर तो क्यों छोड़ें’ वाली भावना से हमने लिफ़्ट ली। यह शीशे की दीवारों वाली लिफ़्ट थी। और लिफ़्ट के दोनों ओर विशालकाय टरबाइन दिख रही थीं। एक भय-सा व्याप्त हो रहा था इतनी मशीनों में घिरे होने से। जब हमने नीचे पहुँचकर सुरंग को देखा तो हम भौंचक्के रह गए। यह एक अच्छी-खासी चौड़ी और किलोमीटर लम्बी सुरंग थी। जिसमें जगह-जगह से नियागरा नदी का पानी रिस रहा था।

हम वास्तव में झरना बनने से पहले वाले स्थान पर नदी के नीचे सुरंग में चल रहे थे। इस सुरंग में प्रकाशित शब्द-पटलों पर बहुत-सी जानकारी दी हुई थी। इस पूरी सुरंग में 15 डिग्री सेल्सियस का तापमान था। हम ठंड से ठिठुर रहे थे। यहाँ का लोमहर्षक आनंद हमें आगे ही आगे चलाए जा रहा था। सुरंग के अंत में पौंचू पहनकर बाहर तक झरने के तले तक देख आने की छूट थी। हम कैसे यह अवसर छोड़ सकते थे। यह एक अलग ही आनंद का मौका था। जगह-जगह पौंचू और प्लास्टिक का इस्तेमाल हमें कचोट रहा था। उसका समाधान यहाँ था कि उतारा हुआ पौंचू आप रिसाइकिल वाले कंटेनर में जमा करा सकते हो। हमने ऐसा ही किया। केवल एक-एक पौंचू हर स्थान का अपनी स्मृति के लिए अपने साथ रख लिया।

कहते हैं कि रात्रि में तो इस कभी वीरान रहे पॉवर स्टेशन में जान आ जाती है और इसमें कभी न भूलने वाला अनुभव होता है किंतु टनल के कारण इसमें शाम 7 बजे के बाद प्रवेश नहीं दिया जाता। अमेरिका की ओर हमने ‘केव ऑफ़ द विंड्स’ नहीं आजमाया था। उसकी भरपाई यहाँ हो गई थी। झरने की धार के पास जाने के अनुभव उससे बेहतर और कई बार हो गए थे। इस पॉवर स्टेशन को 115 वर्षों से कनाडा की कम्पनी चला रही थी और हॉर्स शू झरने की ऊर्जा से विद्युत का निर्माण कर रही थी। अभी कुछ सालों से इसके टरबाइन रोक दिए गए हैं और इसके आश्चर्यजनक जलचालित पॉवर स्टेशन को मनोरंजक और ज्ञानवर्धक सामग्री में तब्दील कर दिया गया है। यह इसके आलीशान इतिहास तथा वास्तुकला की विशिष्ट जानकारी देता है। इसके अतिरिक्त उन सभी मार्गदर्शकों और महाअभियन्ताओं के बारे में यह बताता है जिहोंने इसे स्थापित करने के सुस्वप्न देखे और कार्यान्वित कर दिखाया। पानी से बिजली बनने के इस चमात्कारिक संयंत्र को देखने मात्र से हममें अपार ऊर्जा का संचार हुआ था।

इस जीवन- विशाल अनुभव से पुलकित हम पुन: वैलकम सैंटर की ओर चल दिए। वहाँ नियागरा इनक्लाइन रेलवे स्टेशन के हिंडोले में सवारी भी तो करनी थी। हम इसमें सवार हुए। यह एक लिफ़्ट जैसी ही थी जो ज़मीन से 45 डिग्री के कोण पर ऊपर उठती जाती है। इसमें चढ़कर हम एक ऐसे जीवंत जहान में पहुँचे जिसका हमें कोई अंदाज़ा नहीं था। इस इनक्लाइन रेलवे से सैलाब रूप में उमड़ती नदी को झरने में तब्दील होते देखने का अनुभव करिश्मे जैसा था। दूर से दौड़ी आती नियागरा नदी के उफ़नते-उमगते प्रवाह को सामने और ऊँचाई से हम देख पा रहे थे। बराबर के धरातल से, फिर निचाई और अब ऊँचाई से हम नियागरा को निहारकर प्रसन्न हो रहे थे। आँखें उस पर से हटती ही न थीं।

पर्यटन आँकड़ों के मुताबिक नियागरा के चमत्कारिक पाश में बँधे हर साल दुनियाभर से करीब डेढ़ करोड़ पर्यटक आते हैं। बर्फीले मौसम में नियागरा जलप्रपात हिमप्रपात रूप धारण कर लेते हैं। इस तब्दीली के बाद भी पर्यटकों की लम्बी कतार यहाँ पाई जाती है। महाप्रपात को बर्फ से जमा हुआ देखना एक विलक्षण अनुभव होता हैं। ठंड में स्थानीय पर्यटकों की संख्या कहीं अधिक होती है। हमारे पीछे ही ‘लॉक ब्रिज’ था। जिस की जालियों पर हज़ारों तरह के छोटे-बड़े ताले लगे थे। ये ऐसे ही था जैसे भारत में मन्नतें माँगने वाले किसी मंदिर के बाहर पेड़ पर सैंकड़ों मीटर कलावा बाँध देते हैं। बड़े-से-बड़े और छोटे-से-छोटे ताले उसकी सलाखों को घेरे हुए थे। अपने गठजोड़ को कभी खुलने न देने की चाहत से ये ताले लगाए गए लगते थे। कई तालों पर उनके लगाने वालों का नाम आदि भी अंकित था।

उस पुल पर अनायास ही पहुँचे थे जो हमारी योजना का हिस्सा नहीं था। वह हमें हँसा भी गया और भावुक भी कर गया। उससे होकर हम जिस जगह पहुँचे वहाँ पाँच सितारा होटल हाथ में हाथ डाले उचित दूरी बनाए सिर उठाए खड़े थे। यह स्थान ‘फ़ॉल्सव्यू बुलेवॉर्ड’ कहलाता है। रेस्टोरैंट के बाहर पश्चिमी संगीत की महफ़िलें जमा थीं। वाद्य यंत्रों की धुन में सुर मिलाते हुए युवा गायक का संगीत शाम सुहानी कर रहा था। हम और हमारे जैसे अन्य राह पर आते-जाते लोग रुककर संगीत का आनंद ले रहे थे।

वहाँ के खुशनुमा माहौल का स्वाद चखकर रात्रि नौ बजे हम वहाँ से निकले। अगले दिन 8-9 घंटे की यात्रा कर वाशिंगटन पहुँचने का दिन था। नियागरा के आस-पास तीन दिन विचरण करना बहुत अविस्मरणीय यादें देकर गया। इस प्रवाहमान प्रपात को स्थिर शीतप्रपात के रूप में देखने की तमन्ना लिए हम अपने अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले।

-डॉ. आरती ‘लोकेश’
-दुबई, यू.ए.ई.
Mobile: +971504270752
Email: arti.goel@hotmail.com
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