कहानी

कहानी – कर भला तो हो भला

पेशे से महेशजी छोटे से एक कस्बे के सरकारी विद्यालय में अध्यापक थे। विद्यालय की दूरी घर से लगभग 20 किलोमीटर दूर वीराने में थी और उनके पास में अपना कोई वाहन भी नहीं था। घर से विद्यालय तक पहुँचने का साधन उन्हें यदा-कदा ही मिलता था। इसलिए अक्सर महेशजी को किसी-न-किसी से लिफ्ट मांग कर ही विद्यालय तक पहुँचना पड़ता था और कभी-कभी तो पैदल भी।
महेशजी विद्यालय जाने के लिए लिफ्ट मांगते और साधन तलाशते समय अक्सर ये सोचते थे कि- ‘‘सरकार ने भी कैसे उजाड़ वीराने में विद्यालय खोल रखा है, इससे तो अच्छा यह होता कि मैं घर के पास ही किराणे ;ळतवबमतलद्ध की दुकान लगा लेता।’’
विद्यालय आने-जाने में रोज-रोज होने वाली कठिनाई को देखते हुए उन्होंने एक मोटर साईकिल खरीदने का निर्णय लिया। अपने पास धीरे-धीरे जमा की हुई पूंजी से उन्होंने एक नई मोटर साईकिल खरीदी। मोटर साईकिल खरीदते समय उन्होंने मन-ही-मन में एक प्रण लिया कि कभी किसी को भी लिफ्ट के लिए मना नहीं करूँगा। क्योंकि वे जानते थे कि जब कोई लिफ्ट देने का मना कर देता है तो कितनी शर्मिंदगी महसूस होती है। महेशजी अब प्रतिदिन अपनी नई बाईक से विद्यालय आते-जाते थे। रोजाना कोई-न-कोई उनके साथ हो जाता और वापसी में भी कोई-न-कोई लिफ्ट मांगने वाला उन्हें मिल ही जाता था। प्रतिदिन विद्यालय आते-जाते समय रास्ते में काफी लोग उनके परिचित हो गये।
एक दिन शाम को विद्यालय से लौटते समय उन्हें एक परेशान सा व्यक्ति लिफ्ट के लिए हाथ फैलाये खड़ा मिला। अपनी आदत के अनुसार महेशजी ने बाईक को रोक दिया और उसको अपने साथ बैठने के लिए कहा। वह व्यक्ति उनके पीछे बाईक पर बैठ गया। थोड़ी दूरी आगे चलने पर एक सुनसान निर्जन स्थान पर पीछे बैठे उस व्यक्ति ने अपनी जेब से एक बड़ा चाकू निकालकर महेशजी की पीठ पर लगा दिया और उनसे बोला- ‘‘तुम्हारे पास जितना भी रूपया-पैसा है वह मेरे हवाले करो और साथ में यह बाईक भी, जल्दी।’’
मारे डर के महेशजी ने बाईक को रोक दिया। रूपये-पैसे तो उनके पास अधिक थे नहीं, पर अपनी सबसे प्रिय और मेहनत की पाई-पाई जोड़कर जो बाईक खरीदी थी उसकी चाबी उस व्यक्ति को देते हुए बड़े ही विनम्र होकर उससे बोले-‘‘भाई! आप यह सब ले लो, लेकिन मैं आपसे एक निवेदन कर सकता हूँ?’’
‘‘क्या?’’- वह व्यक्ति लगभग गुर्राते हुए बोला।
‘‘ मेरा आपसे सिर्फ इतना ही निवेदन है कि कभी भी किसी को यह मत बताना कि आपने यह बाईक कहाँ से, किससे और कैसे लूटी? और विश्वास कीजिए कि मैं भी इसकी रिपोर्ट पुलिस में नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों?’’- व्यक्ति ने बड़ी हैरानी से पूछा।
‘‘क्योंकि यह रास्ता बड़ा ही उजाड़ और वीरान है। आने-जाने के लिए आसानी से यहाँ पर कोई सवारी नहीं मिलती। उस पर मेरे साथ हुए ऐसे हादसे को सुनकर तो कोई भी भला व्यक्ति किसी अनजान को कभी भी लिफ्ट नहीं देगा।’’-महेशजी ने एकदम शान्त स्वर में कहा।
उस व्यक्ति को महेशजी बड़े ही भले मानुष प्रतीत हुए। परन्तु वह था तो एक चोर। फिर भी उसने कहा- ‘‘ठीक है।’’ यह कह कर वह बाईक स्टार्ट कर वहाँ से चला गया।
अगले दिन सुबह-सुबह नींद में से उठकर अखबार लेने के लिए जैसे ही उन्होंने अपने घर का दरवाजा खोला तो उनके आश्चर्य का कोई ठीकाना नहीं रहा। उन्होंने देखा कि उनके घर के बाहर उनकी प्यारी बाईक खड़ी थी। मारे खुशी के दौड़कर बाहर आए और बाईक को अपने बच्चे की तरह चूमने लगे। बाईक के पीछे की सीट में लगे बैग पर जब उनकी नजर गई तो उसमें एक लिफाफा पड़ा मिला। उस लिफाफे में उनको एक पत्र मिला।
पत्र में लिखा था कि-‘‘मास्टरजी! यह मत समझना कि कल तुम्हारे द्वारा दी गई ज्ञान की बातों को सुनकर मेरा दिल पिघल गया होगा। मैंने तुम्हारी बाईक को लूट कर सोचा कि कस्बे में ले जाकर इसे किसी कबाड़ी वाले को बेच दूँगा। इसे बेचने के लिए जैसे ही मैं कबाड़ी की दुकान पर गया तो मेरे द्वारा उसको कुछ बताने से पहले ही वह बोला-‘‘अरे! यह बाईक तो मास्टरजी की है, तुम्हें कहाँ से मिली?’’
‘‘मुझे मास्टरजी ने ही किसी काम से भेजा है।’’ ऐसा कहकर मैं उस कबाड़ी की शक भरी नजरों से बचते हुए वहाँ से चला गया।
थोड़ी दूर आगे जाने पर मुझे भूख लगी तो मैं पास ही की एक मिठाई की दुकान पर कुछ खाने की सामग्री लेने के लिए पहुँचा। सामग्री तोलते हुए मिठाई वाला बोला-‘‘अरे! यह तो मास्टरजी की बाईक है।’’
‘‘हाँ, उन्हीं की है। उनके घर पर कुछ मेहमान आए हुए हैं, इसलिए उन्होंने मुझे कुछ मिठाई एवं नमकीन खरीदने के लिए भेजा है।’’ ऐसा कहकर जैसे-तैसे मैं वहाँ से भी बचा। फिर मैंने सोचा कि इसे कस्बे से बाहर ले जाकर किसी और को बेच दूँ। जैसे ही मैं कस्बे से बाहर निकल रहा था कि नाके के पुलिस वालों ने पकड़ लिया। उनमें से एक पुलिस वाले ने लगभग गुर्राते हुए मुझसे पूछा- ‘‘कहाँ जा रहे हो? और यह मास्टरजी की बाईक तुम्हारे पास कैसे?’’ किसी तरह मैंने उससे भी बहाना बनाया।
पत्र में आगे लिखा था कि- ‘‘मास्टरजी यह तुम्हारी बाईक है या हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी। इतनी लोकप्रिय है लोगों के बीच में कि सभी पहचानते है इसे। खैर, आपकी अमानत वापस मैं आपके हवाले कर रहा हूँ, इसे बेचने की ना तो मुझमें शक्ति है ना हौसला। मेरे दुर्व्यवहार से आपको जो कुछ भी तकलीफ हुई हो, उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। प्रायश्चित्त के लिए मैंने आपकी बाईक का पेट्रोल टैंक फूल करवा दिया है।’’
पत्र को पढ़कर महेशजी मुस्कुरा दिए और ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद करते हुए बोले-‘‘कर भला तो हो भला।’’
मित्रों! ईश्वर ने हमें एक सुन्दर मन और उदार हृदय देकर इस संसार में भेजा है। उसके द्वारा दिए गए इन अनमोल उपहारों को बिना किसी प्रतिफल की भावना के हमें सदैव दूसरों की भलाई एवं सहायता करने में लगाना है। यह कभी भी नहीं सोचना है कि ‘‘कौन क्या कहेगा?’’। हमारे द्वारा किए गए भलाई के सभी कार्यों पर ईश्वर की नजर लगातार बनी रहती है, वह कब, कैसे और क्या-क्या कर देता है, यह किसी को भी नहीं पता। इसलिए यकीन मानिए कि ईश्वर सदैव उसी के साथ है जो अपने हृदय में दूसरों की भलाई करने की भावना हमेशा बनाये रखता हो।
— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

401, ‘बंशी निकुंज’, महावीरपुरम् सिटी, चौपासनी जागीर, चौपासनी फनवर्ल्ड के पीछे, जोधपुर-342008 (राज.), मोबाइल: 98280-18003