कविता

तुम्हारा प्रेम… 

दूर से…,
चांद को देखता रहा
मगर… पा ना सका…!

गुरुर से…,
आसमान को निहारता रहा
मगर… कभी छू न सका…!

सुरूर से…,
हवा को महसूस करता रहा
मगर… उन्हें बांध न सका…!

ये चांद…,
वो आसमान…,
और यहां के हवा…,
सब के सब अनागत है

और अज्ञात है
मेरे लिए तुम्हारा प्रेम…!

— मनोज शाह मानस

मनोज शाह 'मानस'

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