तुम्हारा प्रेम…
दूर से…,
चांद को देखता रहा
मगर… पा ना सका…!
गुरुर से…,
आसमान को निहारता रहा
मगर… कभी छू न सका…!
सुरूर से…,
हवा को महसूस करता रहा
मगर… उन्हें बांध न सका…!
ये चांद…,
वो आसमान…,
और यहां के हवा…,
सब के सब अनागत है
और अज्ञात है
मेरे लिए तुम्हारा प्रेम…!
— मनोज शाह मानस