लघुकथा

लघुकथा – मजमून

“एक समय था, जब खत को देखकर मजमून भांप लिया जा सकता था, एक आज का जमाना है, जब मजमून को देखकर भी मजमून का सही पता नहीं लगाया जा सकता.” सात्विक शायद खुद से ही बात कर रहा था, और कोई तो वहां था ही नहीं..
“ऐसा क्यों सोच रहे हो?” सात्विक के मन का एक कोना मुखर हो गया था.
“देश के हर कोने में प्रदर्शन हो रहे हैं. प्रदर्शन तो सही है, पर पत्थरबाजी, आगजनी, सरकारी-गैर सरकारी संपत्ति की तोड़फोड़ में कोई समझदारी है?” दूसरे कोने ने अपने विचार व्यक्त किए.
“समझदारी की जरूरत ही कहां है? पता ही नहीं चल रहा, कि प्रदर्शनकारी कौन लोग हैं और उनको भी नहीं पता, कि वे प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं.” तीसरा कोना क्यों चुप रहता भला!
“एक नई प्रजाति का उदय जो हो गया है! यह नई प्रजाति है बेरोजगारों की. प्रदर्शन के लिए इनको खरीद लिया जाता है. इनकी कोई जाति नहीं होती, बस पैसा ही इनका ईमान भी होता है और धर्म भी.” चौथे कोने से आवाज आई.
“कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊं,
बिक गया वो जो खरीदार हो नहीं सकता.”
रेडियो पर यह गाना सुनते-सुनते पूरे देश के बेहद अफसोसनाक बवाल का मजमून सात्विक को समझ में आ गया था.

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244