कविता

थोड़ी सी खुशी

दो खपची से बनी काँवर
ईंटें,भट्ठे से मैं ढोता हूंँ ।
पत्नी भी मेरी ईंटें ढोती ,
दो रोटी खाकर सोता हूँ।।

मेरा नन्हा बच्चा क्या जाने,
माँ- पिता की छोटी हस्ती है।
उसको तो जब – तब देखो,
ऊधम और चढ़ती मस्ती है।।

रोज – रोज, हर बार ही वह,
ईंटों पर आ बैठ जाता है।
काँवर ना हुई, झूला उसका
हर बार साथ वो जाता है।।

खपची अतिभार से झूल रही
मेरे लिए बच्चा भार नहीं।
उसके बिना जीवन सूना है,
जीवन का कोई सार नहीं।।

थोड़ा सा तिरछा हो करके
मैं , साध उसे ले जाता हूंँ।
चेहरे पर उसके देख खुशी
मैं बाहुबली बन जाता हूँ।।

माँ, उसे बुलाती दूर खड़ी
माँ के पास ना जाता है।
पापा के काँवर झूले में वह
अजब गजब सुख पाता है।

— बृजबाला दौलतानी