हम इतनी जल्दी कूल क्यों नहीं हो पाते?
बात बहुत साधारण-सी है. डेढ़ साल की एक बच्ची का मुंडन-संस्कार हुआ. उसे अपने बालों से बहुत प्यार था. मुंडन-संस्कार के समय अपने बाल कटते देख वह “नहीं-नहीं” और ‘मेरे बाल, मेरे बाल” कहकर बहुत रोई. मुंडन-संस्कार के बाद नहाते समय और गुलाबी रंग की परी जैसी ड्रैस पहनकर भी बहुत रोई. जब उसको ड्रैस की मैचिंग टोपी पहनाई गई तो, उसको अच्छा लगा, शायद कुछ चैन भी मिला, उसने रोना बंद कर दिया. तभी किसी के पूछने पर, “गुड़िया, क्या हुआ?” हंसकर बोली, “मजा आ गया.” उसके बाद तो वह सामान्य हो गई. बार-बार पूछने पर, “बाल कहां गए?” उसे नाई शब्द का तो पता ही नहीं था, हंसकर बोलती कि, “चूहा ले गया.” रात को सोने तक यही सिलसिला चलता रहा. यह सब देखकर मुझे लगा, “हम बड़े लोग बच्चों की तरह इतनी जल्दी कूल क्यों नहीं हो पाते? खुशी की बात पर फूले नहीं समाते, दुख की बात को आसानी से भुला नहीं पाते और वैर जो कि, करना ही नहीं चाहिए, की बात को तो कतई भुला ही नहीं पाते. काश! हम हम बड़े लोग भी बच्चों की तरह इतनी जल्दी कूल हो पाते तो, हमारे तन-मन की स्वस्थता के लिए कितना अच्छा होता?”
— लीला तिवानी