गीत/नवगीत

आई फिर बसंत

जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत

धरती दुल्हन भांति सजा कर आई फिर बसंत

                खुशबू के अलंकार सुशेभित तेज़ हवाओं में।

                सरस्वती के उत्सव चार चुफेरे राहों में।

                वनस्पति के बीच नहा कर आई फिर बसंत।

                जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

अठखेलियों के मनमौजी दृश्य-दर्शन ले कर।

मौसम परिवर्तन वाले मीठे अर्पण ले कर।

निर्मलता का संतोष उठा कर आई फिर बसंत।

जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

                फसलों, फूलों के जोबन का बेपरवाह स्वागत।

                कुदरत के हस्ताक्षर करके लिख दी है ईबादत।

                धूप के साथ छांव नचा कर आई फिर बसंत।

                जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

गन्ने का रस, रेवडी, गच्चक, भुग्गा, मूंगफली।

खिचडी, साग, दहीं, मक्खन, घी मिश्री की डली।

ज़ायकेदान त्योहार बना कर आई फिर बसंत।

जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

                सांझ की वारिस, ऋतुयों की रानी कहला कर।

                अभिवादन करती फुलकारी का घुंघट उठा कर।

                चंचलता भीतर शरमा कर आई फिर बसंत।

                जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

अम्बर में की है चित्रकारी डोर, पतंगों ने।

एक अलौकिक सुन्दर तोहफा दिया रंगों ने।

खुशियों की उपमा अपना कर आई फिर बसंत।

जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

                मानवता की आशा, चरित्र अंगीकार बने।

                घर-घर में ही बालम प्यार बने, सत्कार बने।

                रंगों-धर्मो को समझा कर आई फिर बसंत।

                जन्न्त का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

— बलविंदर ‘‘बालम‘‘

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409