कविता

पुरुष की पीड़ा 

समझ सका ना कोई पीड़ा, पुरुष के मन की, 

दो पाटों के बीच पिस रहे, पुरुष के मन की। 

अपनी पीड़ा सबको बहुत गहन लगती है, 

समझो पीड़ाओं के महासमुद्र, पुरुष के मन की। 

पत्नी की पीड़ाएँ भी व्यथित करती हैं, 

परिवार की पीड़ाएँ चिन्तित करती हैं। 

खुद की पीड़ा कहाँ व्यक्त कर पाता, 

माँ बहन की पीड़ाएँ- पीड़ित करती हैं। 

धूप छाँव में दिन भर वो, खटता रहता, 

बारीश में भी रात दिन, चलता रहता। 

बहन की शादी और दवाएँ माँ की लानी, 

सारे कष्ट स्वयं सहता, हँसता रहता। 

निज सुख की ख़ातिर, कहाँ कहीं कुछ लाता है, 

पत्नी बच्चों पर ही, वह सारा संसार लुटाता है। 

सुखी रहे परिवार, रात दिन मेहनत करता,

 भूखा रहकर कभी कभी, पेट भरा बतलाता है। 

हर पल तिरस्कृत होता वह अपने ही घर में, 

सुबह शाम फ़रमाइश, कटाक्ष झेलता घर में। 

ख़्वाब सुनहरे जो पत्नी, और बच्चों ने देखे थे, 

पूरा न कर पाने की पीड़ा, तनाव झेलता घर में। 

अपनी पीड़ा कह न पाता, क्योंकि पुरुष है, शुष्क

नयन में आँसू बहते, क्योंकि पुरुष है। 

व्यथित मन का दर्द वेदना किसको बतलाये, 

कमजोर नहीं दिख सकता, क्योंकि पुरुष है। 

नये दौर में केवल नारी ही सबला है, 

मात पिता पति आजकल अबला हैं। 

ज़रा नहीं की मन की बातें, प्यार नहीं, 

समझ नहीं आता, ढोलक या तबला है। 

— डॉ अ. कीर्तिवर्द्धन