कविता

जीवन के दिन

कितने हैं किसी के जीवन के दिन

यह जीवन मिला है सबको उधार

न किसी को पता है न कोई है जानता

कोई चुका देगा कोई नहीं पाएगा उतार

चार दिन की ज़िंदगी यूं ही गुज़र जाएगी

पाप की यह गठरी भरती ही जाएगी

हिसाब तेरे कर्मों का है रखा जा रहा

छुपा न पायेगा कुछ भी हकीकत सामने आएगी

फुर्सत में सोचना अकेले में बैठकर ज़रा 

पैसे से भी भला किसी का कभी पेट है भरा

करता रहा उम्र भर इक्कठी पाप की दौलत

दिखावा दिलेरी का मगर अंदर से रहता है डरा

लॉकर तेरी दौलत के सब रह जाएंगे बन्द पड़े

मौत जब आएगी तब पहरेदार सो जाएंगे खड़े खड़े

कितना ज़ोर लगा ले कोई बच नहीं पायेगा

जब भर जाएंगे तब टूट जाएंगे तेरे पाप के घड़े

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र