कविता

छप्पन भोग

परिवार में एक अकेला कमानेवाला

बेचारा कालूराम मर गया,

पूरा परिवार सिहर गया,

घर में चीख पुकार और मचा कोहराम,

चिंता वाजिब है अब कौन करेगा काम,

परिवार,रिश्तेदार,गांव वाले आये,

कालूराम के जीवन पर अपने अनुभव सुनाये,

ले देकर किया गया सुपुर्दे ख़ाक,

बुढ़े मां-बाप,बीवी-बच्चे थे अवाक,

हमदर्दी तो सब दिखा रहे थे,

पर इससे पेट कैसे भरे?

सारे अरमान और ख्वाब

सब रह गए धरे के धरे,

घर के सदस्य परेशान

दशगात्र कैसे मनना होगा,

किस किस के आगे हाथ फैलाना होगा,

पिता ने सगा जनों का बैठक बुलाया,

हाथ जोड़े सबकी ओर नजर उठाया,

लोगों ने कहा कि

कालूराम ने भी तो परिवार सहित

औरों के घर मृत्युभोज खाया है,

अब परंपरानुसार उसके घर वाले

गांववालों को भोज कराएंगे,

सामाजिक नियम निभाएंगे,

और जैसा खाये हैं वैसे खिलाएंगे,

ये कैसा मृत्युभोज जिसके लिए

सबकुछ बेचना पड़ेगा,

साहूकार से ब्याज पर रकम ले

समाज व गांव के लोगों को

छप्पन भोग खिला

समय के भीषण स्थिति से परिवार लड़ेगा,

साथियों कोई भी नियम

स्थायी नहीं होता है,

जिन बंधनों से घरवालों की स्थिति खराब हो जाये,

क्या उसे मिलजुलकर खत्म नहीं कर सकते,

सबके सामने एक मिसाल नहीं धर सकते,

सोचिए जरूर क्योंकि सोचना तो पड़ेगा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554