ग़ज़ल
शादमानी भी वो शादमानी नहीं
जिसमें आँसू की कोई कहानी नहीं।
इश्क़ ने मुझको बख़्शे हैं ये दर्दो ग़म,
ये विरासत मेरी ख़ानदानी नहीं।
मेरी मासूम चाहत का है ये भरम,
कोई इल्हाम ये आसमानी नहीं।
तेरे हक़ में भला कौन बोलेगा फिर,
तेरी फ़ितरत में गर हक़बयानी नहीं।
धड़कनों ने ये कह के गली छोड़ दी,
अब तो सांसों की भी पासबानी नहीं।
इश्क़ है जानलेवा सुना था मगर,
बात हमने ज़माने की मानी नहीं।
आलम ए ज़ीस्त में चार सू है खिज़ां,
मौसमों का तसव्वुर भी धानी नहीं।
कोई तमहीद क्यों तूने बांधी सनम,
बात तुझको अगर थी बतानी नहीं।
क्या चमेली ने दी कह के जां ये कभी,
रात कहती मुझे रात रानी नहीं।
क्यों सिया मान ले राम का दूत है,
पास हनुमत के गर हो निशानी नहीं।
जिसमें यादों का मांजा नहीं हो ‘शिखा’,
वो पतंगें हवा में उड़ानी नहीं।
— दीपशिखा