कविता

इंसानियत और आदमीयत

सामने वह जो
एक लाल कोठी दिखती है
उसका रंग
निरंतर गहराता जा रहा है।

क्योंकि,
उसके अंदर का आदमी
दूसरों का खून चूस
दीवारों के अंदर छिपी
अपनी तिजोरियों को
भरने में लगा हुआ है।

वह लाल कोठी,
वह तो कुछ ही दिन पहले
सफेद हुआ करती थी।
क्योंकि,
तब उसके अंदर रहने वाला इंसान ईमानदार था।

धीरे-धीरे,
वह शर्म से गुलाबी पड़ने लगी ।
क्योंकि,
उसके अंदर का आदमी
अब घूस लेने लगा था

और अब तो
उसका रंग क्रोध से
सुर्ख लाल हो उठा है ।
क्योंकि,
उसके अंदर का आदमी
क्रूर भी हो गया है ।
दूसरों के रक्त चूसने में
उसे मजा आने लगा है
वह चूसा हुआ रक्त,
इस कोठी को मुँह चिढ़ाने लगा है
जिसे विश्वास था,
उसके अंदर का इंसान,
इंसान ही रहेगा।
कभी भी आदमी नहीं बनेगा ।
कभी भी आदमी नहीं बनेगा।

— बृज बाला दौलतानी