हास्य व्यंग्य

कीचड़-उछाल युग

यह ‘कीचड़-उछाल संस्कृति’ का युग है। यत्र-तत्र-सर्वत्र कीचड़- उछाल उत्सव का वातावरण है। कोई भी कीचड़ उछालने में पीछे नहीं रहना चाहता।इसलिए दूसरे पर कीचड़ उछालने में वह अपने अंतर की हर दुर्गंध,दूषण,कचरा,कपट, कुभाव, कुवृत्ति, कुविचार और कुभाषा को कषाइत करने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।यह वह स्थान है,जहाँ हर मानव अपनी मानवता को तिलांजलि देता हुआ बिना किसी भेदभाव के एक ही आसन पर बैठा हुआ पाता है।वहाँ पद,प्रतिष्ठा,पाप-पुण्य आदि ठीक वैसे ही एकासन पाते हैं,जैसे श्मशान में किसी के अंतिम संस्कार में जाते समय अपने अहं को बिसार निर्वेद भाव पर निसार हो जाते हैं।हाँ, एक विपरीत स्थिति यह भी है कि यहाँ अहं नष्ट नहीं होता,अपितु अपने चरम पर होता है।यदि स्वयं का अहं ही नष्ट हो जाएगा तो पराई कीचड़ भी सुगंधित मिष्ठान्न बन जाएगी।फिर वह बाहर उछाली न जाकर हृदयंगम ही की जाएगी।

यह भी परम सत्य है कि कभी किसी भी मानव या ‘महामानव’ अथवा ‘महानारी ‘ने अपने गले में झाँककर नहीं देखा। यद्यपि वह देख सकता था।यदि देख पाता तो कीचड़ -उछाल का आनंद नहीं ले पाता।अपने और अपनों को छोड़ सर्वत्र कीचड़ ही कीचड़ का दृष्टिगोचर होना उसे देवता नहीं बना देता ; क्योंकि सभी देवता गण दूध के धोए नहीं हैं । अब चाहे वे देवराज इंद्र ही क्यों न हों।अपने को स्थापित करने के उद्देश्य से दूसरे की बुराई देखना और उसे सार्वजनिक करना ही कीचड़- उछाल कहा जाता है।लेकिन क्या इससे कोई कीचड़- उछालू गंगा जल जैसा पवित्र मान लिया जाता है?

यों तो कीचड़ उछालना मानव मात्र की चारित्रिक विशेषता है।किंतु साथ ही वह उसकी नकारात्मक वृत्ति ही है। वह उसकी महानता में निम्नता लाने वाली है।कीचड़ उछालने वाला अपने अहंकार में किसी को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। वह अपने को सर्वश्रेष्ठ मानता हुआ मानव – शिरोमणि होने का अवार्ड अपने नाम कर लेता है।’मैं ही हूँ’ सब कुछ,सर्वज्ञ, सर्वजेता,सर्वश्रेष्ठ। यह भाव उसके विवेक पर पूर्ण विराम लगाता हुआ उसकी चिन्तना को प्रभावित करता है।यह उसके अधः पतन और विनाश का मूल है।वह नहीं चाहता कि कोई और आगे बढ़े। वह किसी भी व्यक्ति या संस्था में अच्छाई नहीं देखता। उसे सर्वत्र बदबू और प्रदूषण ही दृष्टिगोचर होता है।परिणाम यह होता है कि वह ‘एकला चलो रे’ की स्थिति में आकर अकेला ही पड़ जाता है। जब तक उसे अपने स्वत्व और दोष का बोध होता है,तब तक गंगा में बहुत ज्यादा पानी बह चुका होता है।एक प्रकार से इसे अज्ञान का मोटा पर्दा ही पड़ा हुआ मानना चाहिए। अब पछताए होत कहा,जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत’।

यद्यपि वर्तमान रजनीति में कीचड़-उछाल का विशेष महत्त्व है। किसी के ऊपर कीचड़ उछालने से कुछ अबोध जन द्वारा वैसा ही मान लिया जाता है। कहना यह भी चाहिए कि कीचड़ राजनीति की खाद है,वह उसकी पोषक तत्त्व है।जो जितनी कीचड़ उछालने की दम रखता है,उस नेता का स्तर उतना ही बढ़ जाता है।बस कीचड़ उछालने की सामर्थ्य होना चाहिए।यह सामर्थ्य धन बल ,पद बल और सत्ता बल से आती है।भूखा आदमी भला क्या खाकर कीचड़ इकट्टी करेगा। कीचड़ को भी बटोरना ,समेटना और सहेजना पड़ता है।कीचड़-उछालूं में दूर दृष्टि,पक्का इरादा और सहनशीलता की अपार सामर्थ्य होनी चाहिए।सहनशीलता इस अर्थ में कि उसे भी दूसरे की कीचड़ सहन के लिए दृढ़ता होनी चाहिए।

कीचड़ -उछाल भी एक प्रकार की होली है, जिसमें कोई किसी के द्वारा कुछ भी डाल देने का बुरा नहीं मानता।अपनी मान,मर्यादा ,पद,प्रतिष्ठा आदि को तिलांजलि देकर ही कीचड़ -उछाल की शक्ति आती है।यह भी नेतागण का परम त्याग है, तपस्या है और है अपने चरित्र और गरिमा को अहं के नाले में विसर्जित करने की अपार क्षमता। इस स्थान पर आकर व्यक्ति ‘परम हंस’ हो जाता है। फिर तो उसे अपने खाद्य -अखाद्य में भी भेद करने का भाव भी समाप्त हो जाता है।यह उसके चरित्र की पराकाष्ठा है।

कीचड़ वर्तमान राजीनीति का शृंगार है। आज की राजनीति में कीचड़-गंध की बहार है।इसे कुछ यों समझिए कि यह जेठ – वैसाख की तपते ग्रीष्म में सावन की मल्हार है।वसंत की बहार है।भेड़ों की तरह हाँकी जा रही जनता का प्यार है।वह भी इसी को पसंद करती है ,क्योंकि ये नेतागण भी तो वही डोज देते हैं,जिससे जन प्रिय बनने में कोई रोड़ा न आए।और फिर ये नेताजी भी तो उसी समाज के उत्पादन हैं,जिन्हें उसकी सारी खरी – खोटियाँ देखने – समझने का सुअवसर पहले से ही मिला हुआ है।

जहाँ आदमी है,वहाँ कीचड़ भी है। वह हर मानव समाज का अनिवार्य तत्त्व है।यह अलग बात है कि वह सियासत का सत्व है।कीचड़ से नेताजी का बढ़ता नित गुरुत्व है।जब नाक ही न हो ,तो कीचड़ की बदबू भी क्यों आए? इस बिंदु पर बड़े – बड़े तथाकथित ‘महान’ भी स्थित पाए। दृष्टिकोण बदलने से दृष्टि भी कुछ और ही हो जाती है।इसलिए भले ही कहीं कितनी भी कीचड़ हो ;वहाँ पावनता ही नज़र आती है।एक की खूबी स्थान भेद से कीचड़ बन जाती है ।इसका अर्थ भी स्पष्ट ही है कि जो कुछ है कीचड़मय है। इसीलिए कीचड़ के प्रति प्रियता है, लय है।कीचड़ ही वर्तमान सियासत का तीव्रगामी हय है। कीचड़ में वैचारिक क्रांति का उदय है;क्योंकि जन भावना का निज स्वार्थों में विलय है।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040

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