इतिहास

आज भी समाज को आईना दिखाता है मुंशी प्रेमचंद का साहित्य

आज भी प्रासंगिक हैं प्रेमचन्द के साहित्यिक व सामाजिक विमर्श

साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। कालजयी साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि, चरित्र और परिवेश के साथ बदलते युग में भी यह नया आख्यान रचता है। मुंशी प्रेमचंद का साहित्य इसी परम्परा को समृद्ध करता है। प्रेमचंद का समाज के अंतिम व्यक्ति से विशेष अनुग्रह था और समाज की विसंगतियों पर उनकी कलम हमेशा चला करती थी। ऐसा लगता है मानो इन रचनाओं के पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। उनकी कृतियों के तमाम चरित्र, मसलन- होरी, मैकू, अमीना, माधो, जियावन, हामिद कहीं-न-कहीं वर्तमान समाज के सच के सामने फिर से तनकर खड़े हो जाते हैं। यही कारण है कि आज भी मुंशी प्रेमचंद की कृतियाँ विकास के तमाम प्रतिमानों के बीच समाज को आइना दिखाती हैं।

मुंशी प्रेमचंद एक साहित्यकार, पत्रकार और अध्यापक के साथ ही आदर्शोन्मुखी व्यक्तित्व के धनी थे। 19वीं सदी के अन्तिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दशक तक, भारत में फैली हुई तमाम सामाजिक समस्याओं पर उन्होंने लेखनी चलायी। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। प्रेमचंद जाति, धर्म और आर्थिक विषमता की गाँठों को तोड़ना चाहते थे। स्वाधीनता संग्राम के भी वे सबसे बड़े कथाकार हैं। अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और समसामयिक मुद्दों को अपनी लेखनी के केन्द्र में रखा। फिर चाहे वह किसानों-मजदूरों एवं जमींदारों की समस्या हो, चाहे छुआछूत अथवा नारी-मुक्ति का सवाल हो, चाहे ’नमक का दरोगा’ के माध्यम से समाज में फैले इंस्पेक्टर-राज का जिक्र हो, कोई भी अध्याय उनकी निगाहों से बच नहीं सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया। जहाँ पहले साहित्य मायावी भूल-भुलैयों में पड़ा स्वप्नलोक और विलासिता की सैर कर रहा था, वहाँ उन्होंने कथा साहित्य में जनमानस की पीड़ा को उभारा। ब्रिटिश सरकार भी मुंशी प्रेमचन्द की रचनाओं से भय खाती थी। जिसकी एक झलक उनकी ‘जुलूस‘ कहानी में देखने को मिलती है। उनकी कृति ’रंगभूमि’, ’गोदान’ अथवा कहानी संग्रह ’मानसरोवर’ आज भी घर परिवार के बच्चों को संस्कारित करते हैं। इसी तरह लोभ, लालच और पाखंड पर आधारित लाटरी, अय्याश जमींदारों पर हमला करती ’शतरंज के खिलाड़ी’ और नैतिक मूल्यों की रक्षा करती ’पंच परमेश्वर’ आदि सभी कृतियां अतुलनीय हैं।

प्रेमचन्द के राष्ट्र-राज्य में दलित, स्त्रियाँ और किसान समान भाव से मौजूद हैं, जिनके विकास के बिना भारत के विकास के कल्पना भी बेमानी है। प्रेमचन्द ने ’होरी’, ’घीसू’, ’माधव’ और ’धनिया’ सरीखे पात्रों का चयन करके वाकई दिलों को छूने का काम किया। प्रेमचन्द ने कृषक समुदाय को भारत की प्राणवायु बताया। कर्ज में डूबे किसान, उन पर ढाये जाते जुल्म, उनकी बद से बद्तर होती गरीबी, व्यवस्थागत विक्षोभ और किसानों की समस्याओं को किसी भी साहित्यकार ने उस रूप में नहीं उठाया, जिस प्रकार प्रेमचन्द ने उठाया। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. विपिन चन्द्र की टिप्पणी गौरतलब है, ‘‘यदि कभी बीसवीं शताब्दी में आजादी के पूर्व किसानों की हालत के बारे में इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार का प्राथमिक स्त्र्रोत होगा प्रेमचंद का ‘गोदान’, क्योंकि इतिहास कभी भी अपने समय के साहित्य को ओझल नहीं करता।’’ ’गोदान’ मात्र किसान की संघर्ष गाथा नहीं है वरन् इसमें स्त्री की बहुरूपात्मक स्थिति को दर्शाते हुए उसकी संघर्ष गाथा को भी चित्रित किया गया है। स्त्रियों के साथ समाज में हो रहे दोयम व्यवहार का प्रेमचन्द ने कड़ा विरोध किया और अपनी रचनाओं में उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा देते हुये, विकास की धुरी बनाया। ’गोदान’ में अभिव्यक्त गोबर व झुनिया के बीच अवैध प्रेम और विवाह, सिलिया चमाइन और मातादीन पण्डित का प्रेम-प्रसंग जहाँ परम्परा में सेंध लगाते हैं और स्त्री को मुक्त करते हैं वहीं मेहता से प्रेम करते वाली मालती मलिन बस्तियों में मुफ्त दवा बाँट कर सामाजिक कार्यकत्री के रूप में नजर आती है तो क्लब-संस्कृति के बहाने वह जीवन का द्वैत भी जीती है। मेहता और मालती का प्रेम एक प्रकार से ’लिव-इन-रिलेशनशिप’ का उदाहरण है।

‘गोदान’ ने प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में वही स्थान दिया जो रूसी साहित्य में ‘मदर’ लिखकर मैक्सिम गोर्की को मिला। ‘सेवा सदन’ में एक वेश्या के बहाने प्रेमचन्द्र ने धर्म के नाम पर चलने वाले अनाथालयों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ किया है। ‘कर्मभूमि’ में मुन्नी द्वारा बलात्कारी सिपाही की हत्या स्त्री-मुक्ति के संघर्ष का अनूठा साक्ष्य है। प्रेमचन्द का पूरा साहित्य ही दलित, स्त्री और किसान की लड़ाई का साहित्य है जिसमें समता, न्याय और सामाजिक परिवर्तन की घोषणा है। यहाँ धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, जाति, वर्ण, ऊँच-नीच के लिये कोई जगह नहीं है, जगह है तो सिर्फ मानवता की- जिसके बिना जीवित रहना ही अकारथ है।

प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य का सपना देखते थे जो समतावादी समाज पर आधारित हो। यहाँ तक कि जब काशी में उन्होंने सरस्वती प्रेस खोला तो कर्मचारियों को रोज कुछ-न-कुछ देना ही पड़ता पर उतनी आय नहीं होने से सबकी माँग रोज पूरी नहीं हो पाती थी। ऐसे में प्रेमचन्द सबके सामने रोज शाम को आमदनी का हिसाब रख देते और कहते-‘‘इतने पैसों में तुम्हीं लोग अपने और मेरे लिये ब्योंत कर दो, मुझे पान-तम्बाकू और इक्का-भाड़ा-भर देकर बाकी आपस में बाँट लो।’’ वस्तुतः प्रेमचन्द के चिंतन और व्यवहार में समरसता और साहचर्य महत्वपूर्ण है, केंद्र-बिंदु बनना नहीं। यही कारण है कि ऐसे लोग जो आंदोलनों का केंद्र-बिंदु बनकर स्वयं के लिये कुर्सी हथियाना चाहते हैं, प्रेमचन्द उन्हें बाधा नजर आते हैं।

समग्र लेखन की सबसे बड़ी विशेषता समाज के सभी पक्षों को उसमें समाहित करना है। प्रेमचंद के लगभग सभी पात्र कहानियों से निकल कर उपन्यासों से बाहर आकर एक अलग संसार रचते हैं और इन चरित्रों की छाप इतने गहरे उतरती है कि यह हमारे अवचेतन का हिस्सा हो जाते हैं। ‘पंच परमेश्वर’ के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख न्याय की निष्पक्षता को एक रुहानी ऊँचाई देते हैं और हामिद के चिमटे में छिपी भावना पूरी ‘ईदगाह’ में बड़े मियाँ के सजदे में झुकने से भी बड़ी इबादत हो जाती है। काल्पनिक पात्र सजीव हो जाते हैं, किस्से-किवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं और कथानकों के मामूली चरित्र रोजमर्रे में लोगों की जुबान पर नायक और महानायक की तरह चढ़ जाते हैं। यही कारण है कि प्रेमचन्द के लेखों में दक्षिणपंथी-मध्यमार्गी-वामपंथी, सभी धाराएँ फूटकर सामने आती हैं। चूँकि समाज विभाजित है, अतः उनके लेखन की भी पृथक-पृथक व्याख्या करता है।

मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की नई इबारत लिखी। उनका साहित्य शाश्वत है और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती हैं। प्रेमचन्द का साहित्य और सामाजिक विमर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं-न-कहीं जिंदा हैं। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। समाज आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था। चाहे वह जातिवाद या सांप्रदायिकता हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और समाजिक भेदभाव हो। इन बुराईयों के आज भी मौजूद होने का एक कारण यह है कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समांतर हर तरह के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा नेतृत्वकर्ताओं को केंद्र-बिंदु बनाकर लड़ी गयी जिससे मूल भावनाओं के विपरीत आंदोलन गुटों में तब्दील हो गये एवं व्यापक व सक्रिय सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा कुछ लोगों की सत्तालोलुपता की भेंट चढ़ गयी।

— कृष्ण कुमार यादव

आकांक्षा यादव

आकांक्षा यादव (अँग्रेजी: Akanksha Yadav) एक भारतीय महिला साहित्यकार और ब्लॉगर हैं। वे नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन करती हैं। उन्होने वर्ष 2008 में ब्लाॅग जगत में कदम रखा और विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लाॅग का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लाॅगिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लाॅगिंग को भी नये आयाम दिये। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रुचि रखने वाली आकांक्षा यादव अग्रणी महिला ब्लॉगर हैं और इनकी रचनाओं में नारी-सशक्तीकरण बखूबी झलकता है।। देश-विदेश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ अपनी दो पुस्तकें प्रकाशित। दर्जनाधिक प्रतिष्ठित पुस्तकों /संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से वार्ता, रचनाओं इत्यादि का प्रसारण। व्यक्तित्व-कृतित्व पर डा. राष्ट्रबंधु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’(कानपुर) का विशेषांक जारी। 20 नवम्बर 2008 से हिंदी-ब्लागिंग में 'शब्द-शिखर' के माध्यम से सक्रिय। विकीपीडिया पर भी तमाम रचनाओं के लिंक्स उपलब्ध। ब्लॉगिंग के लिए उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा जी न्यूज का ’अवध सम्मान’, परिकल्पना समूह द्वारा ’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लागर दम्पति’ सम्मान, 'ब्लॉग भूषण' सम्मान, 'परिकल्पना सार्क शिखर' सम्मान एवं डॉयचे वेले की बॉब्स - बेस्ट ऑफ एक्टिविज्म प्रतियोगिता में हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग श्रेणी में सम्मानित। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डाक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘ व ‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा 'हिंदी भाषा भूषण', ‘एस.एम.एस.‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु दर्जनाधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त। एक रचनाधर्मी के रूप में रचनाओं को जीवंतता के साथ सामाजिक संस्कार देने का प्रयास। बिना लाग-लपेट के सुलभ भाव-भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें, यही आकांक्षा यादव की लेखनी की शक्ति है !!