ग़ज़ल
काग़ज़ है इतना हल्का बचाया न जायेगा,
ये गहरा रंग इससे छुड़ाया न जाऐगा।
टूटा है एक ताजमहल इस ज़मीन पर,
अब इस जगह पे कुछ भी बनाया न जाऐगा।
हाथों से अपने तुमने लगाया है जो शजर,
पतझड़ में भी वो तुमसे गिराया न जाऐगा।
कल सुब्ह आने वाले हैं परदेस से सजन,
इस रात मुझसे ख़ुद को सुलाया न जाऐगा।
उस दिलरुबा का मुझको दुपट्टा ही चाहिए,
सादा कफ़न ये मुझको उढ़ाया न जाऐगा।
फूलों में कौन सबसे ज़ियादा हसीन है,
आसानी से ये तुमसे बताया न जाऐगा।
सुसराल जाते वक़्त वो लिपटी है इस तरह,
अब इसको मां से जल्द छुड़ाया न जायेगा।
दानिस्ता एक लड़की ने मुझको गिराया है,
अब मुझसे आज ख़ुद को उठाया न जायेगा।
— अरुण शर्मा साहिबाबादी
