गीतिका/ग़ज़ल

रंगों की सौग़ात

 

रंग न होते हिन्दू -मुस्लिम रंगों की ना जात सखे!
रंगों की भाषा ना बोली पर कह देते बात सखे!

लाख छिपाओ भाव हृदय के किंतु मुखरित हो जाते
सुख-दुख-क्रोध-त्याग-ममता के रंग सभी जज़्बात सखे!

गाँव-देश की सीमाओं में इनको ना कोई बाँध सके
धरती से अंबर तक बिखरी रंगों की सौगात सखे!

चलों बिसारें काली रजनी रुदन-राग और क्लेष यहाँ
सतरंगी रथ पर सज आया दिनकर संग प्रभात सखे!

पल-पल करती सदियाँ बीतीं नित नव युग ने चरण धरे
मगर प्रीत के रंगों ने न छोड़ा जग का हाथ सखे!

आग लगी हो जब नफ़रत की आओ प्यार के रंग भरें
एक शरद से ना ये होगा तुम भी तो दो साथ सखे!

One thought on “रंगों की सौग़ात

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर कविता!

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