ग़ज़ल
वो अश्क भरा चश्म, समुन्दर न हुआ था
उस दीद से’ दिल भर गया’, पर तर न हुआ था |
तू दोस्त बना मेरा’ चुराकर न हुआ था
संसार कहे कुछ भी’ सितमगर न हुआ था |
वर्षों से’ नहीं हम मिले’, यह एक फसाना
खिंचाव कभी कुछ कहीं’, जर्जर न हुआ था |
हर बार नयन से गिरे’ आँसू, मिले’ जब हम
वो अश्रु हमारा कभी’, गौहर न हुआ था |
दुनिया ने’ किया ज़ुल्म, निखारा सभी’ सद गुण
हम भी बने’ मज़बूत, सिकंदर न हुआ था |
वो गर्म निगाहें तेरी’, कहती थी’ फ़साने
शोला जगा’ जब दिल में’ तो’ अवसर न हुआ था |
वो सुरमई’ आखें बड़ी’, औ गाल में’ कृष तिल
सब याद है’ मुझको, कभी’ कमतर न हुआ था |
गौहर –मोती
कालीपद ‘प्रसाद’