काश मैं हिन्दू ना रहूँ और तुम मुस्लिम ना रहो,
चलो अब गले लगाकर तुम आमीन तो कहो।
आओ सारा फर्क मिटा दें अपने दिलों से हम,
ना दर्द हम सहें नफरतों का अब ना तुम सहो।
काश ईद तुम्हारी हो और मीठी खीर मैं बनाऊँ
रोशनी हो तुम्हारे घर जब मैं दीवाली मनाऊँ।
सारी दुनिया मिशाल देगी हमारी मोहब्बत की,
जब होली वाले दिन प्रेम के रंग तुम्हें मैं लगाऊँ।
कश्मीर क्या पूरे हिंदुस्तान को जन्नत बनाएं हम,
लगें गले एक दूसरे के नफरतों को मिटाएँ हम।
आओ हिन्दू, मुस्लिम को छोड़ पीछे इंसान बनें,
इस दुनिया को राह ए मोहब्बत अब दिखाएं हम।
नहीं करती फर्क सुलक्षणा की कलम धर्म देखकर,
बनती है तलवार ये तुम्हारी बातों का मर्म देखकर।
आजमा लेना जिंदगी में कभी भी तुम बातों को,
इसके सजदे में सर झुकाती है दुनिया कर्म देखकर।
©® डॉ सुलक्षणा