कविता

कल और आज

कल और आज

जी रहा यंत्रवत जीवन को ,
दो पल सुकून के ढूंढ रहा |
अनजान अजनबी सा मानव ,
अब भी बिल्कुल न चेत रहा |

युग है संचार साधनों का ,
मानव भी है मशीन जैसा |
बुद्धि अशुद्ध कर इतराता ,
रीता – रीता प्रस्तर जैसा |

बुद्धि के बल पर मानव ने ,
साधन सुविधा में वृद्धि करी |
सुविधाओं के आकर्षण में ,
जीवन शैली ही नष्ट करी |

अंदर की संवेदना मरी ,
भावना श्रोत भी सूख गया |
रिश्तों में थी खुशबू मिठास ,
न जाने वह खो गयी कहाँ |

संस्कृति की सुदृढ़ रीत पावन ,
थी बाँधे हमको आपस में |
था आभावों में जीवन पर ,
फिर भी था एक सुकून उसमे |

धरती पर नदियों झरनों की ,
भरमार रहा तब करती थी |
जंगल में मंगल रहता था ,
खुशहाल फिजाएं रहती थी |

सुविधा का शिखर पा लिया है ,
पर हृदय हो गया है दरिद्र |
लक्ज़री गाड़ियाँ धन -दौलत ,
बंगला शोहरत पर रीता मन |

✍ ©मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”
लखनऊ, उत्तर प्रदे

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016