हमारी सुरक्षा हमारी समान विचारधारा के लोगों के संगठित होने पर ही संभव
मनुष्य मननशील प्राणी है। वह सभी विषयों पर विचार करता है और उन पर अपनी स्वतन्त्र सम्मति वा राय रखता है। वह अपने समान विचारों वाले लोगों को पसन्द करता है। परस्पर विरोधी विचारधारा वाले लोग एक-दूसरे को पसन्द नहीं करते व इस प्रकार सहयोग नहीं करते जैसे कि समान विचारधारा के लोग आपस में करते हैं।
मनुष्य अध्ययन कर अपने अज्ञान को दूर व कम कर सकता है। जिस समाज में कम शिक्षित व्यक्ति होते हैं वह समाज अधिक अज्ञान, अन्धविश्वासों व भ्रान्तियों से ग्रस्त होता है। मनुष्य यदि सत्य का निर्णय करना चाहे तो वह सभी विषयों में सत्य और असत्य का निर्णय कर सकता है। इन विषयों में ईश्वर का सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव, उसकी प्राप्ति के साधन, ईश्वर प्राप्ति से होने वाले सुख, आनन्द-प्राप्ति तथा परलोक के सुख सहित मोक्ष की प्राप्ति भी सम्मिलित है। हम अपने अध्ययन को बढ़ा कर ईश्वर की उपासना की एक ऐसी पद्धति भी बना सकते हैं जो सर्वथा निर्दोष हो तथा जिसके आचरण से हम व अन्य सभी मनुष्य भी ईश्वर का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष कर सकते हैं। हजारों वर्ष पूर्व उपासना की वह पद्धति हमें महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन के नाम से प्रदान की थी। आधुनिक काल में भी ऋषि दयानन्द ने मानव जाति को ईश्वर की उपासना के लिए उपासना की सत्य विधि ‘सन्ध्या विधि’ प्रदान की है जिससे उपासना करने से हम ईश्वर को प्राप्त होते हैं। हमने ऋषि दयानन्द जी का लिखा सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़ा है। उनका जीवन चरित तथा अन्य सभी ग्रन्थों को भी पढ़ा है। सत्यार्थप्रकाश में किसी भी विषय के प्रायः सभी पहलुओं को प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा व विश्लेषण कर सत्य मान्यता का प्रकाश किया गया है। ऐसा ग्रन्थ इससे पूर्व व बाद में नहीं लिखा गया है। मनुष्य समाज का मार्गदर्शन करने सहित मानवजाति की सर्वांगीण उन्नति के लिए संसार में सत्यार्थप्रकाश सर्वोत्तम ग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर हम ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति सहित कार्य-सृष्टि एवं मनुष्य के कर्तव्य-धर्म, आचार, विचार, शरीर-आत्मा की उन्नति आदि सभी विषयों को जान सकते हैं और अपने जीवन को इसके लक्ष्य धर्माचरण, अर्थ प्राप्ति, कामनाओं की सिद्धि और मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जा सकते हैं। ऐसा होने पर ही हमारा यथार्थरूप में कल्याण हो सकता है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हमारी भौतिक उन्नति तो जीवन में हो सकती है परन्तु हम आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् आत्मा-परमात्मा के ज्ञान व परमात्मा की प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना तथा उससे होने वाले लाभों से जीवन भर वंचित ही रहते हैं। मनुष्य को सीमित मात्रा में धन व साधनों की आवश्यकता होती है। इसे पुरुषार्थ कर प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए अनाचार व भ्रष्ट आचरण किये जाने की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य को अपनी कामनाओं को सत्य पर स्थित करना चाहिये। वेदाध्ययन करने से हमें अपने हित व हानियों का यथार्थरूप में ज्ञान होता है। अतः वेदाध्ययन सहित दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋषि दयानन्द जीवनचरित आदि सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये। इससे निःसन्देह मनुष्य का जीवन उत्तम व आदर्श बनेगा।
मनुष्य की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। उसे समाज में अन्य विचारधाराओं व उनकी अच्छी व बुरी योजनाओं का ज्ञान होना चाहिये। उनसे अपनी रक्षा के प्रयत्न भी करने चाहिये। इसके लिये आवश्यक है कि मनुष्य अच्छे व देश, समाज व मनुष्य के हितकारी चिन्तन करने वाले समाज व लोगों से जुड़े। अपने विचारों से समाज के अन्य लोगों को सहमत करे व संगठित होकर अपनी रक्षा व उन्नति के विचार करे। हमें वर्तमान तथा भविष्य में अपनी व अपनी सन्ततियों की रक्षा पर भी विचार करना चाहिये। हमारी सन्ततियों को हमारी विचारधारा विरोधी विचारों व संगठनों से भय हो सकता है। अतः हमें अपने विचार वाले लोगों के साथ मिलकर संगठित होना चाहिये। यदि किसी एक बन्धु पर दुःख या मुसीबत आती है तो सभी बन्धुओं की उसकी रक्षा व सहायता करनी चाहिये। उस बन्धु को आश्रयहीन नहीं छोड़ना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो आने वाले समय में हमारी भी दुर्दशा हो सकती है। अपने भविष्य के सुख के लिए हमें अपने सभी बन्धुओं का निरन्तर हित करते रहना चाहिये। आदर्श रूप में संगठित होने के लिए हमें अपनी शैक्षिक एवं सत्य धर्म शास्त्रों के ज्ञान की योग्यता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिये और अपनी लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा आदि स्वार्थों पर नियंत्रण रखना चाहिये। इन एषणाओं के कारण ही समाज में संगठन शिथिल व कमजोर होता है जिससे समाज व जाति को हानि होती है। यह बात सभी बन्धु जानते हैं परन्तु फिर भी कुछ लोग इस पर नियंत्रण नही रख पाते। अतः सभी जातीय बन्धुओं पर इस पर ध्यान देना चाहिये और जातीय हितकारी संगठनों को वेद के ज्ञान के प्रकाश में तथा स्वार्थहीन होकर सहयोग देना चाहिये। देश व धर्म हमारे जीवन उद्देश्य वा जीवन के एजेण्डे में सर्वोपरि होने चाहिये। हमें अपने स्वार्थों के लिए देशहित से कभी भी समझौता नहीं करना चाहिये। देश और धर्म रहेगा तभी हम और हमारी सन्ततियां जीवन्त व सुखपूर्वक रह सकेंगी। हमारे आचरण व कार्यों का प्रभाव व दुष्प्रभाव हम पर व हमारी भावी सन्ततियों पर पड़ेगा, इसलिए हमें सावधान होकर जातीय संगठनों को कमजोर करने वाले आचरण व व्यवहारों से बचना चाहिये और अपना जीवन व आचरण धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप बनाना व रखना चाहिये।
आर्यसमाज सिद्धान्तों व विचारधारा की दृष्टि से संसार का सर्वोत्तम संगठन है। आर्यसमाज के सभी सिद्धान्त व विचार सत्य पर आधारित हैं। असत्य विचारों व मान्यताओं का आर्यसमाज द्वारा त्याग किया गया है। जो बातें अज्ञान पर आधारित हैं, उन अन्धविश्वासों का आर्यसमाज व इसके अनुयायी त्याग करते हैं तथा अन्यों को भी ऐसा करने की प्रेरणा करते हैं। हमें आश्चर्य एवं दुःख होता है कि जैसी एकता व सुदृणता आर्यसमाज के संगठन में होनी चाहिये थी, वैसी देखने को नहीं मिलती। कुछ लोगों के कारण समाज उस तेजी से अपने लक्ष्य ‘‘कृण्वन्तों विश्वमार्यम्” अर्थात् विश्व को श्रेष्ठ व उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त करने की ओर तेजी से बढ़ नहीं पा रहा है। हमें अपनी कमजोरियों को दूर करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो इसके दुष्परिणाम बहुत शीघ्र हमारे सम्मुख उपस्थित होंगे। अतः सभी सच्चे ऋषिभक्तों को अपने कर्तव्यों को समझकर इसका पालन करना चाहिये और समाज को कमजोर करने वाले लोगों को किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करना चाहिये। समाज संगठित एवं बलशाली होगा तभी हमारी व हमारी सन्ततियों की रक्षा होगी। अपने जातीय दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर हमें अन्य देश-हितकारी संगठनों से भी सहयोग करना चाहिये। उनमें यदि अविद्या है तो उसका विनम्रता से प्रकाश करना चाहिये और उन्हें सत्य को स्वीकार करने का अनुरोध करना चाहिये। हमारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित होना चाहिये कि हम वेद एवं आर्यसमाज के सिद्धान्तों, मान्यताओं व सत्य परम्पराओं का अनुकरण व पालन करें तथा इससे अन्य सभी को परिचित करायें और उन्हें भी सत्य वैदिक मान्यताओं को ग्रहण करने का आग्रह करें। ऋषि दयानन्द चाहते थे कि संसार के सभी लोग ईश्वरीय ज्ञान वेद को अपनायें एवं सब एकमत होकर सभी दुर्गुणों, दुव्र्यसनों तथा दुःखों से दूर होकर सर्वांगीण उन्नति करें। यह लक्ष्य प्राप्त होने के स्थान पर दूर होता जा रहा है, अतः इस पर विद्वानों को विचार कर आर्यजनता सहित देश की जनता का मार्गदर्शन करना चाहिये।
आर्यसमाज का दसवां नियम है कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें। प्रत्येक वैदिक धर्मी को इस नियम पर विचार कर इसका पूर्णरूप से अपने जीवन में पालन करना चाहिये। इस नियम को यदि हम समाज में प्रवृत्त कर करा सकें तो इससे हमारा संगठन सुदृण हो सकता है। आर्यसमाज तथा हिन्दू समाज का संगठन सुदृण तथा अविद्या से रहित हो, इसका प्रयास राम तथा कृष्ण को मानने वाले सभी सनातन धर्मियों को करना चाहिये। सब सनातन ज्ञान वेद के अनुसार जीवन व्यतीत करते हुए देश, समाज, जाति, धर्म तथा संस्कृति की रक्षा करने में योगदान करें तथा यह सब प्रलयवस्था तक सुरक्षित रहें, इस भावना से हमने कुछ विचार प्रस्तुत किए हैं। आप सब भी देश की वर्तमान स्थिति पर विचार करें और सत्यासत्य का चिन्तन-मनन कर सत्य को ग्रहण कराने के लिए अपनी भूमिका स्वयं निर्धारित करें। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य