शरद में वो
शरद में वो
ठिठुराने वाली शरद ऋतु में
कपकपाते हाथों से, थरथराते होठों से
आज भी वो बुढ़िया एक मेट्रो स्टेशन के नीचे
हाथ फैलाए बैठी रहती है
मौसम का बदलना उसके काम नहीं आता है
सरकारों का बदलना उसके काम नहीं आता
उसके मात्र एक जिज्ञासा काम आती है
वह जिज्ञासा है भूख की!
वह भूखी है तो हाथ फैलाती है
हां भूख!!
सभी मौसमों में एक जैसी रहती है
भूख उसको जगाए रखती है
उसको फिर से दौड़ा देती है
हाथ फैलाने को
प्रवीण माटी