इतिहास

अद्भुत सर्वतोभद्र तीर्थंकर प्रतिमा

चेन्नई संग्रहालय में एक सर्वतोभद्र अर्थात् चारों दिशाओं में चार तीर्थंकरयुक्त (चतुर्मुखी) प्रतिमा संग्रहीत है। इसकी जानकारी विश्व जैन संगठन ने निकाली है। यह आंध्रप्रदेश के दानवालप्पडु, जिला कडपा से प्राप्त हुई थी। प्रतिमा की ऊंचाई 50.5 सेमी और चैड़ाई 30 सेमी बताई गई है। यह अद्भुत इस कारण कही जा रही है कि इसके अभिषेक-जल निकासी का जलपनाल शिवलिंग के आधार के समान है।

जैन मूर्तिकला में सर्वतोभद्रिका (चैमुखी) प्रतिमाएँ निर्मित करने की परम्परा बहुत प्राचीन है। पुरातन से अद्यतन अनेक सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ निर्मित हैं। यह तीर्थंकर के समवशरण (विशेष उपदेश सभा) की प्रतीक है। तीर्थंकर का समवशरण में जब उपदेश होता है तब वे चारों दिशाओं में एक ही समय में समान दिखते हैं।

प्रस्तुत सर्वतोभद्र प्रतिमा में चारों दिशाओं में चार तीर्थंकर पद्मासन ध्यान मुद्रा में हैं। जैन प्रतिमाशास्त्रानुकूल चारों प्रतिमाओं के दोनों पाश्र्वों में चँवरधारी देव निर्मित हैं, कुंचित केश हैं। प्रभावल और छत्रत्रय नियमानुकूल हैं। इसकी दो प्रतिमाओं के पादपीठ कमल से निर्मित दर्शाये गये हैं, अन्य दो के पादपीठों में क्या उत्कीर्णित है यह स्पष्ट नहीं हो रहा है। एक प्रतिमा का शिर पांच सर्प-फणों से आटोपित है। जैन प्रतिमा शास्त्र में ऐसा फण-मुकुट तेईसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ और सातवें तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ के लिए शिल्पित किये जाने की परम्परा है।

विश्लेषण-

1. यह प्रतिमा बहुत महत्वपूर्ण है, इसे 10वीं शती काा बताया जा रहा है, किन्तु यह और भी अधिक प्राचीन प्रतीत होती है।

2. तीर्थंकर प्रतिमाओं में तीन, पांच, सात, नौ, 108 और 1008 आदि फणों के अंकन की परम्परा विद्यमान है। पांच फण तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ की प्रतिमा के लिए और शेष संख्याओं के फणाटोप का अंकन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की प्रतिमाओं के लिए शिल्पित किये जाने की परम्परा है। किन्तु पाश्र्वनाथ की प्रतिमा के भी कई स्थानों की प्रतमिाओं पर पंचफण दर्शाये गये हैं।

3. यह प्रतिमाशिल्प सर्वतोभद्र (चार तीर्थंकर) मूर्ति ही हैं इसमें संदेह नहीं है। क्योंकि कदाचित् साकार शिवलिंग होता और ध्यानस्थ शिव की कल्पना करते तो शिव प्रतिमा के कुंचित केश अंकित नहीं किये जाते, शिव प्रतिमा के जटा अंकन की अनिवार्यता होती है। सर्प का फणाटोप नहीं बल्कि सर्प का गलहार भी दर्शाय जाता है, शिव के  उनके चंवरधारी भी नहीं दर्शाये जाते हैं।

4.  इस प्रतिमा का आधार शिवलिंग के आधार के समान है यह देखकर लोग अचंभित हैं, किन्तु इसे गौर से देखें तो यह संग्रहालय वालों ने सौन्दर्योत्पादकता की दृष्टि से जलपनाल पर रख कर प्रदर्शित किया है, प्रतिमा और आधार अलग-अलग स्पष्ट हैं। संग्रहालय में जहां यह प्रतिमा प्रदर्शित है, उसके निकट एक और खाली जलपनाल रखा प्रदर्शित है।

5. फटे महादे नहीं हैं- कुछ लोगों ने चित्र देखकर अनुमान लगाया था कि ये वाराणसी की घटना से जुड़े हु ए ‘फटे महादे’ हो सकते हैं। आचार्य समंतभद्र (संवत् 200) का जैन पौराणिक कथानक है कि मुनि समंतभद्र को भष्मक रोग हो गया था, उसके शमन के लिए वे काशी के प्रसिद्ध शिव मंदिर में रहे। उन्होंने तीर्थंकरों की ऐसी स्तुति की कि उनके स्वरचित स्तोत्र बोलते समय शिवलिंग फटकर उसमें से आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा प्रकट हो गई थी। वाराणसी में वह मंदिर अब भी विद्यमन है। उसे ‘फटे महादे’ मंदिर नाम से जानते हंै। प्रस्तुत प्रतिमा के चारों तीर्थंकर अलग अलग हैं, तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का लांछन चन्द्रमा है, चंद्रमा प्रतिमा कि किसी भी छवि में नहीं है और शिवलिंग के आधार जैसा जलपनाल प्रतिमा से अलग है, इसलिए यह ‘फटे महादे’ नहीं हैं।
6. इसके जलपनाल पर भी कई चित्र उकेरे गये हैं, जिनमें उड्डीयमान माल्यधारी, अश्वारोही युगल, श्रीफल-पत्रयुक्त कलश इत्याादि।

इस तरह यह सर्वतोभद्र तीर्थंकर प्रतिमा निर्विवादित, महत्वपूर्ण, दुर्लभ और अत्यन्त प्राचीन है।

— डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर

डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज

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