लघुकथा

लघुकथा – प्रतीक्षा

सांझ हो चली थी,अंधेरों की काली छाया धीरे-धीरे अपना पाँव पसार रही थी,पंछियाँ अपने घोसलों को लौट रही थीं। मंदिरों में घंटियां बजने लगी,गायों का झुण्ड अपने बसेरों में पहुँचने को ललायित हो रम्भाते दौड़ लगा रही थीं।गाँवों के लटटू टिमटिमाते नजर आ रहे थे।इधर बिरजू भी सोंच रहा है था कि कब उसका काम खत्म हो और वह फ़ौरन अपने घर पहुँचे।दरअसल में वह एक मजदूर था।जो एक निश्चित राशि के एवज में एक जमींदार के यहाँ मजदूरी करता था।उसका मालिक उसे कब? क्या? कौन सा काम? भिड़ा देता कोई निश्चित नही रहता।
आज वह अपने मालिक की आज्ञा का पालन करते हुए दोपहर से काम किए जा रहा है। आज कुछ ज्यादा ही काम था और छुट्टी होने में देरी हो गई।उसके मालिक ने कहा- “बिरजू आज कुछ देरी हो गई है रात हो चली है तुम हमारे साथ हमारे घर में ही खाना खा के जाना!”
तभी काँपती आवाज में बिरजू कहता है- “नही-नही मालिक मुझे जाना होगा!”
तब उसका मालिक कहता है- “इतनी हड़बड़ी और जल्दी क्यों है बिरजू?”
तब बिरजू कहता है- “मालिक! मेरे घर में किसी की पथराई आँखें, किसी की ममता, किसी का भरोसा, किसी का स्नेह मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनको भला मैं कैसे भूला सकता हूँ।” और फिर क्या था उसने अपना परोसा खाना पोटली बना वह झट से निकल पड़ता है। मालिक को समझ मे आ गया था, और गंभीर हो उसे देखने लगा।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578