आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 32)
अध्याय-10: सेवा धर्म कठिन जग माहीं काँटा लगे किसी को तड़पते हैं हम अमीर। सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर
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Read Moreअपने स्कूल की राजनीति में तो मैं सक्रिय और प्रमुख भाग अदा करता ही था, विश्वविद्यालय स्तरीय राजनीति में भी
Read Moreकिसी शायर ने लिखा है- पीके मदहोश तो हुए थे हम भी पर ये रिन्दों के जनाजे कहाँ देखे थे?
Read Moreउस वर्ष 1981 में छात्र संघ के चुनावों में मैंने अपने स्कूल से श्री बी. राजेश्वर का पार्षद पद के लिए
Read Moreजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सतलुज छात्रावास में रहते हुए मेरे कई ऐसे मित्र बने जो मेरे सहपाठी नहीं थे। उनमें
Read Moreवि.वि. में प्रारम्भ में मैं सबसे कटा-कटा रहा। सौभाग्य से वहाँ मेरे कमरे का साथी तथा कुछ पड़ोसी बहुत सहयोगशील
Read Moreमैं लम्बे समय से चेतावनी देता रहा हूँ कि इस्लाम का विनाश निकट भविष्य में अवश्यम्भावी है. कोई अदृश्य शक्ति
Read Moreशीघ्र ही वहाँ से टेस्ट तथा इन्टरव्यू का बुलावा आ गया। तारीख दो-चार दिन बाद की ही थी अतः हमने
Read Moreअध्याय-9: अरावली का उत्तरी छोर मैं अकेले ही चला था जानिबे मंजिल मगर। हम सफर मिलते गये और कारवाँ बनता
Read Moreमेरे अनेक अन्य पत्र मित्र भी रहे हैं। यदि उन सबका विस्तार से परिचय दूँ तो मेरी कलम को कभी
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