उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 32)

अध्याय-10: सेवा धर्म कठिन जग माहीं

काँटा लगे किसी को तड़पते हैं हम अमीर।
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।।

सेवा की भावना मुझमें अपने पारिवारिक संस्कारों की देन है। हमारी माताजी ने प्रारम्भ से ही हमें बड़े-बूढ़ों का सम्मान करने और उनकी सेवा करने की प्रेरणा दी है। घर पर कभी कोई भिखारी या साधु-महात्मा आता था, तो वे प्रयत्नपूर्वक हमारे हाथों से ही उन्हें दान दिलवाती थीं या सेवा कराती थीं। प्रारम्भिक जीवन में पड़े ये संस्कार आगे चलकर और प्रबल हो गये। मेरे बचपन में ही एक ऐसी घटना घट गयी थी, जिसके द्वारा मेरे जीवन को एक दिशा मिली और मैंने सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

घटना कुछ यों है कि हमारे गाँव में एक नीलकंठ बाबा नाम के महात्मा प्रायः आया करते थे। वे पास के ही एक गाँव जुगसना में आश्रम बनाकर रहते थे और वहाँ से प्रतिदिन प्रातःकाल मुँह-अँधेरे ही पैदल यमुना स्नान करने जाते थे। यमुना उनके आश्रम से लगभग 10 मील दूर बल्देव के पास थी और उनके आने-जाने का रास्ता हमारे गाँव से होकर था। इसलिए कभी-कभी हमें उनके दर्शनों का सौभाग्य मिल जाता था। कई बार लौटते समय गाँव के लोग मिन्नतें करके उन्हें रोक लेते थे और अपनी बीमारियों की दवा आदि पूछा करते थे। ऐसा माना जाता था कि वे एक सिद्ध पुरुष हैं।

एक बार की बात है कि हमारे मौहल्ले के सेठ श्री झुन्नीलाल जी, जो हमारे ही खानदान से थे और रिश्ते में हमारे बाबा लगते थे, ने उनको रोक लिया। उनके बड़े सुपुत्र श्री भगवान स्वरूप के पैरों को लकवा मार गया था, जिसकी दवा वे पूछना चाहते थे। नीलकंठ बाबा उन दिनों केवल दही या मठा लिया करते थे। अतः सेठजी ने उनको मठा लाकर दिया, जिसको उन्होंने पी लिया। फिर उन्होंने पानी माँगा, तो मैं दौड़कर अपने घर से पानी ले आया। जब मैं पानी उनके कमंडल जैसे बर्तन में डाल रहा था, तो बाबा के मुँह से ये शब्द निकले- ‘सेवा करौगे, तो मेवा पाऔगे।’ मुझे लगा कि बाबा ने ये शब्द मेरे लिए ही कहे हैं, मानो मुझे गुरुमंत्र दिया हो। मैंने इसे अपना सौभाग्य समझा कि इतने बड़े सिद्ध पुरुष ने बिना माँगे ही मुझे गुरुमंत्र दे दिया।

तभी से मैंने सेवा को अपना धर्म बना लिया। इसके बाद जब भी मुझे किसी की सेवा करने या कोई परोपकार करने का अवसर मिलता है, तो मैं उसे छोड़ता नहीं हूँ। परन्तु यह समझना सही नहीं होगा कि सेवा का व्रत मैंने मेवा पाने के लिए लिया है। वास्तव में मैं बिना किसी प्रति-उपकार की कामना से ही ऐसे कार्य किया करता था और यथा संभव अभी भी करता रहता हूँ। कई बार लोगों ने इसका अनुचित लाभ भी उठाया है, फिर भी मैं बदले में किसी उपकार की आशा नहीं करता। इस सम्बंध में मैंने एक नियम और बना रखा है- ‘नेकी कर और दरिया में डाल।’

दुनिया में हर प्रकार के लोग हैं। जहाँ बहुत से लोग किसी उपकार के बदले उपकार करने की कोशिश करते हैं, तो अधिकांश लोग ऐसे उपकारोें को तुरन्त ही भूल जाते हैं। कई महान् लोग ऐसे भी होते हैं, जो उपकार के बदले अपकार (भलाई के बदले बुराई) भी कर डालते हैं। इन सभी श्रेणियों के लोगों से मेरा पाला पड़ा है। एक बार मैंने एक सरदारजी की टैक्सी के पीछे ये शब्द लिखे देखे थे- ‘नेकी कर और जूते खा। मैंने खाए तू भी खा।’ शायद उन सरदारजी का पाला तीसरी श्रेणी के लोगों से ज्यादा पड़ा होगा, जिससे जल-भुनकर उन्होंने अपना यह तत्व ज्ञान प्रकट किया था।

सेवा करने की मेरी भूख को तृप्त किया है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने। मैं प्रारम्भ से ही देशभक्तिपूर्ण विचारों का रहा हूँ। जब हमारी प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक राष्ट्रीय पर्वों जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्तूबर आदि पर सभा करते थे और उनमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया करते थे, तो अन्य सभी छात्रों की तरह मेरे ऊपर भी गहरा असर होता था और मैं महान् देशभक्त बनने के सपने देखा करता था। समय पाकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आकर मेरे इन विचारों को और अधिक परिपक्वता प्राप्त हुई।

मैं प्रारम्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अधिक परिचित नहीं था। हालांकि हमारे पिताजी प्रारम्भ से ही संघ के स्वयंसेवक थे और वार्षिक गुरुदक्षिणा भी करते थे। गाँव में कुछ अन्य लोग भी पुराने स्वयंसेवक थे, जैसे श्री राम लाल जी (जिन्हें सब बड़े भैया कहते थे) और पंडित श्री राम नारायण जी, परन्तु गाँव में कोई शाखा नहीं लगती थी। लेकिन जब भी संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी मथुरा या आसपास आते थे, तो पिताजी उनके कार्यक्रम में अवश्य जाते थे।

संघ से मुझे परिचित कराने का श्रेय जाता है श्री बल्देव जी सिसौदिया को। (वे इस समय जहाँ भी हों, मेरे शतशः प्रणाम स्वीकार करें।) वे हमारी सादाबाद तहसील में नियुक्त संघ प्रचारक थे। छोटा कद, भरा-भरा शरीर, रंग साँवला और आँखों पर मोटा चश्मा। हमेशा धोती-कुर्ता पहनते थे और बहुत ही मीठा बोलते थे। वे प्रायः हर साल-छः माह में हमारे गाँव में सम्पर्क हेतु आया करते थे और अधिकतर हमारे घर पर ही भोजन और निवास करते थे।

रात्रि को सोते समय वे हमसे बहुत बातें किया करते थे। वे हमें रामायण, महाभारत और पुराणों की कहानियाँ सुनाया करते थे और उनका मर्म समझाते थे। मुझे याद है कि एक बार जब मैं टेसू खेल रहा था, तो उन्होंने पूछा था कि यह क्यों खेलते हो और इसका क्या अर्थ है? मैं कुछ नहीं बता सका, क्योंकि वास्तव में मुझे पता नहीं था। तब उन्होंने ही बताया कि यह खेल अर्जुन के उस महापराक्रमी पुत्र बर्बरीक की याद में खेला जाता है, जो महाभारत में लड़ने आया था और कह रहा था कि जो पक्ष हारेगा, मैं उसी की ओर से लड़ूँगा। तब भगवान् कृष्ण ने सोचा कि यह तो बहुत खतरनाक है, यह पांडवों को कभी जीतने नहीं देगा। इसलिए उन्होंने तत्काल सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। जब उसके कटे हुए सिर ने महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की, तो भगवान ने उसे एक ऊँचे स्थान पर तिलंगे में स्थापित कर दिया। उसी की याद में यह टेसू का पर्व मनाया जाता है।

इसी प्रकार वे हमें बहुत सी बातें बताया करते थे। एक बार उन्होंने गुरुदक्षिणा कार्यक्रम भी किया था। परन्तु मैं कुछ जानता नहीं था, अतः ऐसे ही खड़ा रहा। उसी दिन पहली बार मैंने संघ की प्रार्थना सुनी और दोहरायी थी। गाँव में संघ से मेरा परिचय इतना ही रहा।

जब मैं कक्षा 8 से आगे पढ़ने के लिए आगरा आया, तो संघ से गहरा परिचय हुआ। हमारे बड़े मामाजी संघ के कर्मठ कार्यकर्ता रहे हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैं शाखा जाने लगा। हमारी शाखा प्रारम्भ में सिर की मंडी में गोरखनाथ की बगीची के निकट एक खाली स्थान में लगा करती थी।

यहाँ मैं अपने बड़े मामाजी के बारे में विस्तार से बताना आवश्यक समझता हूँ। उनका नाम है श्री दयाल चन्द गोयल, जिन्हें बोलचाल में सभी लोग ‘डालचंद जी’ कहा करते हैं। मामाजी का मेरे ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा है। वे प्रारम्भ से ही संघ के स्वयंसेवक हैं। वे आजादी से पहले से ही संघ से जुड़ गये थे और आज तक जुड़े हुए हैं। उन्होंने कई बार आन्दोलनों में भाग लिया है। मुख्य रूप से वे ‘गोवा मुक्ति आन्दोलन’ में सक्रिय भाग ले चुके हैं। इसकी पूरी कहानी उन्होंने लिखी थी, जो मैंने भी पढ़ी थी। वे नियमित व्यायाम करते हैं और आज 90 वर्ष की उम्र में भी स्वस्थ और सक्रिय हैं।

मामाजी बहुत ही धार्मिक व्यक्ति हैं। प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके पँचकुइयाँ चौराहे की बगीची में सत्संग में जाया करते थे, जहाँ पूज्य व्यास जी महाराज प्रवचन करते थे। जब मैं कक्षा 9 में पढ़ता था और मेरे कान ठीक थे, तो मामाजी की प्रेरणा से कभी-कभी मैं भी सत्संग में जाया करता था। हर सोमवार की सायंकाल हमारे मोहल्ले नयाबांस के पास ही पुनियापाड़ा मौहल्ले में मन्दिर में सत्संग होता था, उसमें मैं नियमित जाता था। उसमें बाद में कभी कभी मामाजी भी प्रवचन करते थे।

मामाजी की आर्थिक स्थिति बहुत साधारण थी। छोटी सी घी-तेल की दुकान करते थे, जिससे उन्हें गुजारे लायक आमदनी हो जाती थी। अधिक की कामना उन्होंने कभी नहीं की। दुर्भाग्य से उनके बड़े पुत्र श्री सन्त गोपाल की मानसिक स्थिति अच्छी नहीं रही, जिसके कारण वे काफी दुःखी रहे। मामाजी के छोटे सुपुत्र श्री मदनगोपाल जी अभी भी घी-तेल की दुकान चलाते हैं और उनके पुत्र भी दो दुकानें करते हैं। इससे उनकी आर्थिक स्थिति अब अच्छी हो गई है।

हमारे छोटे मामाजी श्री दाऊ दयाल जी गोयल भी स्वयंसेवक थे और प्रायः कार्यक्रमों में जाया करते थे। वे एक बीज कम्पनी के एजेंट थे। दुर्भाग्य से कम आयु में ही उनका किसी बीमारी से देहान्त हो गया था। संदेह किया जाता है कि उनको किसी ने कुछ खिला दिया था। उनके बड़े सुपुत्र श्री अरुण कुमार गोयल (अरुण भाई) लोहे के बड़े व्यापारी हैं और उन्होंने अच्छी आर्थिक हैसियत बना ली है। वे एक बार नगर पार्षदी का चुनाव भी लड़कर हार चुके हैं।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 32)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप का जीवन जैसे जैसे पड़ता हूँ मैं अपने गाँव में चला जाता हूँ जैसे आप मेरे गाँव के ही हों . मैं शुरू से इतना धार्मिक नहीं रहा हूँ लेकिन मेरी माँ जिस को हम बीबी बोलते थे बहुत ही धार्मिक विचारों की थी और रोजाना एक धार्मिक किताब के सामने एक कड़छी में कोले प् के रखती और उस में धूफ पाती जिस से कमरे में महक हो जाता . गुरु नानक देव जी राम चंदर जी और कृष्ण जी के कैलंडर लगे हुए थे. तीन ब्राह्मण घरों से हमारा रिश्ता बहुत ही घना था . लेकिन मैं भी कथा सुनने का बहुत शौक रखता था . जितना मैं आज रामायण और महांभारत के बारे में जानता हूँ यह इस कथाओं की वजह से ही है . किसी गाँव से एक पंडित सगली राम जी आये हुए थे जो कथा किया करते थे , रोज रात को हम उनको सुनने के लिए जाया करते थे . मुझे याद है उस कथा में जिस दिन कंस को मारना था तो हम अपने अपने घरों से गुड ले कर आये थे , पता नहीं कियों . जब कंस की मृतु हुई सब ने गुड खाना शुरू कर दिया . इस कथा को सुनने का शौक इस लिए भी ज़िआदा था कि मैं बचपन से ही गाया करता था और उस समय नागिन फिल्म का बहुत बोल बाला था और सगली राम जी हार्मोनीअम पर जादू गर सैयां और मेरा मन डोले की तर्जें और बीन की धुन वजाय करते थे जो मैं भी अपने घर जा कर हार्मोनिअम पर यह धुनें निकालता था. आप की जीवन कथा मैं बहुत दिलचस्पी से पड़ रहा हूँ .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब. आपकी बातें पढ़कर अच्छा लगा. जब मेरे कान ठीक थे, तो यह गीत ‘ये कौन बजाये बाँसुरिया’ मुझे भी बहुत पसंद था.

  • Man Mohan Kumar Arya

    सेवा करने से मेवा मिलता है। यह लगता है धर्म का पालन करने से सुखों की प्राप्ति होती है इस कथन का सरल भाषा में रूपांतर है। आचार्य चाणक्य जी ने भी कहा है कि सुख का आधार धर्म है, धर्म का आधार धन है, धन का आधार राज्य तथा राज्य का आधार इन्द्रिय जय है। अतः मेवा वा शुखी जीवन के लिए देश के नागरिकों को मन व इन्द्रियों को वश मैं रखना, स्वतंत्र देश का नागरिक होना, धन व संपत्ति से समृद्ध, धन से ही धर्म करना संभव तथा ऐसा ही मनुष्य सुखी हो सकता है, यह आचार्य चाणक्य का कहना है जो की वेद सम्मत एवं अकाट्य तथ्य है। आर एस एस से भी मनुष्य की सामाजिक उन्नति होती है यह सिद्ध है। आज की किश्त का पूरा विवरण भी पूर्व किश्तों की भांति रोचक एवं प्रेरणादायक है। हार्दिक धन्यवाद एवं बधाई।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर! आपका कहना सत्य है।

  • रमेश कुमार सिंह ♌

    बहुत अच्छा श्रीमान जी।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, बंधुवर !

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