उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 28)

वि.वि. में प्रारम्भ में मैं सबसे कटा-कटा रहा। सौभाग्य से वहाँ मेरे कमरे का साथी तथा कुछ पड़ोसी बहुत सहयोगशील थे। धीरे-धीरे मेरा स्वभाव खुला। पहले मैं डरा करता था कि आगरा के होस्टलों की तरह यहाँ भी रैगिंग होती होगी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कम से कम इस बुराई से पूरी तरह मुक्त था। वहाँ का राजनैतिक वातावरण मेरे अनुकूल था। मेरा दावा है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसा लोकतांत्रिक वातावरण कम से कम भारत के किसी अन्य विश्वविद्यालय में नहीं होगा। शीघ्र ही सैकड़ों लोग मेरे मित्र बन गये थे- उनमें संघ वाले भी थे, कांग्रेसी भी, समाजवादी भी और कम्यूनिस्ट भी। हिन्दू तो थे ही, मुस्लिम तथा सिक्ख भी कई थे। एक दो ईसाई और वनवासी भी मेरे मित्रों में थे। मेरी राजनैतिक चेतना और बुद्धिजीवियों जैसे व्यक्तित्व का लोगों पर काफी प्रभाव पड़ता था। मेरा छोटा कद और बच्चों जैसा चेहरा देखकर वे समझते थे कि मैं इण्टर करने के बाद किसी भाषा में एम.ए. करने आया हूँ। लेकिन जब उन्हें पता चलता था कि मैं सांख्यिकी में स्नातकोत्तर कर चुका हूँ और अब कम्प्यूटर साइंस में शोध कर रहा हूँ, तो उनकी नजरों में मेरा सम्मान बहुत बढ़ जाता था।

एक दिन ऐसा भी आया कि उस विश्वविद्यालय में जहाँ मैं एक दिन अकेला गया था, मैं काफी प्रसिद्ध हो गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आधारित अपनी विचारधारा और अपने वास्तविक धर्मनिरपेक्ष आचरण के कारण मैं अपनी विचारधारा के विरोधियों में भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने प्रथम वर्ष में मैं प्रायः पढ़ाई की तरफ ही ध्यान देता रहा। यद्यपि मैं विश्वविद्यालय की राजनीति में पूर्ण दिलचस्पी लेता था, लेकिन सक्रिय भाग नहीं लेता था। उस वर्ष विश्वविद्यालय छात्रसंघ के जो चुनाव हुए उसमें मैं एक दर्शक की तरह दिलचस्पी लेता रहा। अपने स्कूल की पार्षद की सीट पर मैंने संघ के समर्थक और अपने मित्र श्री आदित्य चन्द्र झा का गुप्त समर्थन किया और वे मामूली बहुमत से जीत भी गये।

हमारी कक्षा में 15 लड़कों को प्रवेश दिया गया था। कोई लड़की प्रवेश पाने में सफल न हो पायी थी। उन पन्द्रह में से कई प्रायः गायब रहते थे, केवल 9 या 10 लोग ही नियमित कक्षाओं में जाया करते थे। इनमें से मुझे छोड़कर बाकी सब ज.ने.वि. के राजनैतिक वातावरण के मात्र मूकदर्शक रहते थे। जबकि मैं पढ़ाई की तरफ पूरा ध्यान देते हुए भी राजनैतिक गतिविधियों में भी यदा-कदा भाग लेता था।

हमारी कक्षा में एक-दो को छोड़कर सभी पढ़ने में काफी तेज थे। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि हम सब अखिल भारतीय स्तर की प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होकर ही प्रवेश पा सके थे। कक्षा में सबसे आगे रहते थे श्री पूर्णेन्दु नारायण जिन्हें मैं सुविधा के लिए ‘पूरन’ कहा करता था। वे पढ़ने में काफी तेज थे और प्रायः हर समय किताबों में ही सिर घुसाये रहते थे। अन्य गतिविधियों से प्रायः अलग ही रहते थे। हमारी कक्षा में केवल वे ही शादीशुदा थे। प्रारम्भ में हम दोनों में बहुत मधुर सम्बन्ध थे। लेकिन कुछ माह बाद अचानक हमारे बीच तनाव आ गया। एक साल की पढ़ाई करके ही वे ओ.आर.जी. कम्पनी में नौकरी पर चले गये थे। और जहाँँ तक मेरी जानकारी है अभी तक उनकी एम.फिल. पूरी नहीं हुई। आजकल वे देहली क्लाथ मिल (डी.सी.एम.) में किसी अच्छे पद पर हैं।

कक्षा में दूसरा नम्बर था श्री ओ. वेणु गोपाल कृष्णा का। जिन्हें सब लोग ओ.वी.जी. कहा करते थे। वे आन्ध्रप्रदेश के रहने वाले थे और काफी तेज थे। उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। लेकिन कभी-कभी वे बहुत गुस्सा हो जाते थे। हमारे सम्बन्धों में उतार चढ़ाव आता रहता था। लेकिन कुल मिलाकर हम बहुत अच्छे दोस्त थे। उनका शौक था चित्र बनाना। वे बहुत उच्चकोटि के चित्र बनाते थे। आजकल आप पटनी कम्प्यूटर्स बम्बई में एक अच्छे पद पर हैं।

कक्षा में इनके बाद नम्बर आता था श्री जितेन्द्र प्रसाद सिंह का। पूर्णेन्दु की तरह वे भी बिहार के रहने वाले थे। इनका दिमाग बहुत तेज था, लेकिन पढ़ने में प्रायः लापरवाही भी किया करते थे। हम दोनों में बहुत मीठी-मीठी झड़पें हुआ करती थीं। वे प्रायः मेरा गाल चूम लेते थे। आजकल ये भी ओ.आर.जी. बड़ौदा में हैं। इनकी एम.फिल भी शायद अभी पूरी नहीं हुई है।

कक्षा में चौथा नाम मेरा था और पाँचवे सज्जन थे श्री हवा सिंह। आप हरियाणवी युवकों के एक उदाहरण थे। व्यवहार में काफी तेज, कुछ चालाक भी, स्वास्थ्य बहुत अच्छा और लगभग हर बात में हरियाणवीपन। लेकिन आम जाटों के विपरीत इनका ज्ञान और बुद्धि बहुत ऊँचे दर्जे की थी। कक्षा में कई विषयों में पीछे रहते थे, लेकिन अन्त में वे मेरे बाद दूसरे नम्बर पर आ गये थे। पहले वे भोपाल विश्वविद्यालय के एक संस्थान में लैक्चरर बने और अब शायद अमरीका पी.एच.डी. करने चले गये हैं। हम दोनों में घंटों तक बातें होती रहती थीं और लम्बी-लम्बी बहसें हुआ करती थीं, जिनमें हार जीत का फैसला कभी नहीं होता था।

कक्षा में मेरे सबसे अच्छे मित्र थे श्री विजय शंकर प्रसाद श्रीवास्तव जिन्हें सब लोग वी.एस.पी. कहा करते थे। वे पढ़ने लिखने में  काफी अच्छे थे, और बुद्धि भी तेज थी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण थी उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति। वे अन्य लोगों के विपरीत बहुत मेहनती थे। दूसरे लोग जब गप्पों में समय गुजारते थे तो वे कहीं पुस्तकालय में बैठे हुए पुस्तकें घोंट रहे होते थे। हमारी कक्षा में सबसे पहले एम.फिल. इन्हीं की पूरी हुई। इन्होंने केवल 4-5 महीनों में ही अपनी डिजर्टेशन लिखकर जमा कर दी थी, जब तक कि दूसरे लोगों ने काम ढंग से शुरू भी नहीं किया था। इनके डिजर्टेशन काफी अच्छे दर्जे की थी और उचित ही उन्हें उच्चतम ग्रेड ए+ मिला था। आजकल ये इण्डियन टेलीफोन इण्डस्ट्रीज, लखनऊ में एक अच्छे पद पर हैं और यूरोप में 6 माह की ट्रेनिंग भी ले आये हैं। इनकी शादी भी हो चुकी है और अपने परिवार के साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं।

इनमें एक और खासियत थी कि दूसरे लोग जहाँ पैसे खर्चे करने में कंजूसी करते थे वहीं ये कभी हाथ नहीं खींचते थे। जब भी हम सम्मिलित चाय पीते थे प्रायः ये ही पैसे चुकाते थे। हम दोनों की दोस्ती स्कूल में आदर्श मानी जाती थी। इसका एक कारण यह भी था कि हम दोनों के ही विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा और मान्यताओं पर आधारित थे।

(पादटीप : डॉ. विजय शंकर प्रसाद श्रीवास्तव आजकल इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय में कंप्यूटर शिक्षा विभाग के प्रमुख है. कई वर्ष बाद मेरा उनसे पुनः संपर्क हुआ है, लेकिन संयोग से अभी तक प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो सकी है.)

इनके अतिरिक्त मेरी कक्षा में कई अन्य लोग भी थे जिनका मैं केवल नाम उल्लेख कर रहा हूँ। पी. कृष्ण प्रसाद, सुनील कुमार सिन्हा, उड़ीसा के कोई त्रिपाठी, श्रीनिवासन आदि। अन्य के नाम मुझे याद नहीं आ रहे हैं। इनमें से श्री पी. कृष्ण प्रसाद मेरे अच्छे दोस्त थे और मेरे ही होस्टल में रहते थे। लेकिन बाकी के साथ मेरे औपचारिक सम्बन्ध ही थे।

यदि मैं अपने उन दोस्तों का जिक्र न करूँ जो मुझसे एक-दो साल आगे या पीछे थे, तो मेरा अपराध अक्षम्य होगा। मेरे वरिष्ठ दोस्तों में प्रमुख नाम है श्री एस. कृष्णा राव का। वे विचारों से चीन और वियतनाम समर्थक कम्युनिस्ट थे, लेकिन एक इंसान की तरह उनका जोड़ मिलना मुश्किल था। यह जानते हुए भी कि मैं बहुत पक्का जनसंघी हूँ, वे मुझसे राजनैतिक मामलों पर राय लिया करते थे। ज.ने.वि. में मेरी राजनैतिक गतिविधियाँ शुरू कराने का श्रेय उनको ही है। वे राजनीति के बहुत अच्छे जानकार थे और हर बात को राजनीति की तराजू पर तौल कर ही बोलते थे। मेरे एक अन्य मित्र श्री राजेश्वर कहा करते थे कि इनसे सलाह मत लो, ये राजनीतिज्ञ हैं। श्री राव आजकल नेशनल इनफोर्मेटिक्स सेन्टर नई दिल्ली में प्रोग्रामर के पद पर हैं।

श्री बी. राजेश्वर भी श्री राव की तरह आंध्रप्रदेश के निवासी थे। पढ़ने लिखने में कोई खास तेज नहीं लेकिन दिमाग आला दर्जे का था। दुर्भाग्य से वे अपनी क्षमताओं का सदुपयोग नहीं करते थे। वे कई साल में एम.फिल. पूरी कर सके और अभी तक पी.एच.डी. नहीं कर पाये हैं। लेकिन राजनीति में बहुत भाग लिया करते थे। उनकी विचारधारा मेरी विचारधारा से बहुत कम मिलती थी। लेकिन अपनी स्कूल की राजनीति में हम दोनों एक दूसरे के कट्टर समर्थक और मित्र थे। वे बहुत ईमानदार थे और उनकी ईमानदारी की कद्र उनके कड़े दुश्मन भी किया करते थे।

वे दूसरों की सहायता बहुत उदारता से किया करते थे। हम उन्हें मिनी बैंक, मिनी पोस्ट आफिस, मिनी सब्जी मण्डी और मिनी पुस्तकालय कहा करते थे। सारे लोग उनकी इस उदारता का जायज-नाजायज फायदा उठाते थे। वे अभी भी ज.ने.वि. में ही पीएच.डी. कर रहे हैं।

उनके ही एक साथी थे श्री अशोक कुमार जो मेरे घनिष्टतम मित्र माने जाते थे। उनकी उम्र यद्यपि मुझसे लगभग 15 वर्ष ज्यादा थी फिर भी हमारी बहुत अच्छी पटती थी। हमारे विद्यालय में सारे लोग प्रायः उनका मजाक बनाया करते थे क्योंकि वे बहुत बड़बोले थे। लेकिन हम दोनों की मित्रता हमेशा कायम रही। हम दोनों ने सदा एक-दूसरे का साथ देने की कसम खाई थी, जिसे अन्त तक निभाया। वे सिर से गंजे होते जा रहे थे, अतः एक टोपी लगाया करते थे। इसलिए लोग उन्हें ‘टोपी वाला’ कहकर मजाक उड़ाते थे। यद्यपि श्री अशोक कुमार कभी-कभी मूर्खतापूर्ण बातें कर जाते थे। लेकिन उनका ज्ञान सागर बहुत अथाह था। उन्होंने काफी दुनिया देखी थी यह बात दूसरे लोग नहीं जानते थे। लेकिन मैं जानता था क्योंकि हम दोनों घंटों बातें करते रहते थे। अगर किसी दिन अशोक कुमार मेरे कमरे में नहीं आते थे तो मेरा भी मन नहीं लगता था। सौभाग्य से उनकी नौकरी एक अच्छी जगह लग गयी है जिसकी उम्मीद लोग नहीं करते थे। वे आजकल भारत पेट्रोलियम में मुम्बई में एक अधिकारी हैं उनका एक बहुत प्यारा सा बच्चा बन्टी भी है।

श्री आदित्य चन्द्र झा, जिनका नाम ऊपर आया है, अपनी राजनैतिक और अराजनैतिक गतिविधियों के कारण काफी कुख्यात थे। इसका एक और प्रमुख कारण था कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विद्यार्थी परिषद के नेता थे। दूसरा कारण यह भी था कि उनकी कुछ गतिविधियाँ बहुत आलोचना प्राप्त करती थीं। जिन दिनों मैं जे.एन.यू. में दाखिल हुआ थाा वह बहुत बदनाम हो गये थे, क्योंकि उस वर्ष हमारे विद्यालय में एम.फिल. के दाखिलों में घपला करने की कोशिश की गयी थी, जिसे बड़ी मुश्किल से रोका गया था। उस घपले में श्री झा तथा दो-तीन ऐसे प्रोफेसरों का नाम लिया गया था जिन्हें संघ से सम्बन्धित बताया जाता था। हालांकि इसमें सच्चाई कम थी, बदनामी ज्यादा!

मेरे आने के बाद उनकी गतिविधियाँ कुछ कम हो गयी थी। संघी विचारधारा के होने के कारण मैं शीघ्र ही उनसे जुड़ गया था और मैंने यह पाया था कि उनके बारे में फैली हुई ज्यादातर बातों का कोई सिर-पैर नहीं था और कई मामलों में बात का बतंगड़ बनाया गया था। उस वर्ष वे हमारे विद्यालय से पार्षद पद के लिए खड़े हुए थे और मैंने उनका प्रत्यक्ष समर्थन किया था, जिसके कारण वे केवल तीन वोटों के बहुमत से जीत गये थे।

बाद में कुछ ऐसी घटनायें घटी जिनके कारण हमारे सम्बन्धों में कुछ तनाव आ गया था, लेकिन कुल मिलाकर हम अच्छे दोस्त बने रहे। आजकल श्री झा राजनैतिक गतिविधियों से मुक्त रहकर इंडियन टेलीफोन इण्डस्ट्रीज लखनऊ में श्री वी.एस.पी. श्रीवास्तव के साथ ही आफिसर हैं तथा शादी भी कर चुके हैं।

(पादटीप : श्री आदित्य चन्द्र झा के बारे में मुझे मिली अंतिम सूचना यह है कि वे नेपाल में इंजीनियरिंग कालेजों के संस्थापक और सब कुछ हैं. इन कालेजों से उन्होंने बहुत धन कमाया है.)

इनके अतिरिक्त श्री सरदार जितेन्द्र पाल सिंह, श्री बैजनाथ, श्री बलवीर चन्द्र कैले आदि मेरे कई अन्य सीनियर मित्र थे। बाद में मेरे कुछ जूनियर मित्र भी बने। जिनमें प्रमुख नाम है श्री राम नरेश सिंह का। आप बिहार के रहने वाले थे और पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छे न होने के बाबजूद काफी मेहनती थे। अपनी मेहनत के बल पर ही वे आजकल सी-डाॅट नामक सरकारी कम्पनी में इतने अच्छे पद पर हैं जिसे हमारे विद्यालय का कोई दूसरा व्यक्ति अभी तक प्राप्त नहीं कर सका है।

श्री राम नरेश सिंह मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। और मेरा बहुत आदर करते हैं। मैं जब भी कभी दिल्ली जाता हूँ मैं अधिकतर उनके पास ही ठहरता हूँ। वे मेरे भविष्य में बहुत रुचि लेते हैं। और राम नरेश सिंह जैसा मित्र पाना वास्तव में बहुत सौभाग्य की बात है और मैं स्वयं को इस मामले में भाग्यशाली मानता हूँ।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

8 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 28)

  • बहुत दिलचस्प लग रही है , ख़ास कर दोस्तों को याद रखने का एक ख़ास तरीका जिस से वोह कभी आप भूलेंगे नहीं.

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब ! दो तीन दिन आपका कमेन्ट नहीं दिखाई दिया तो मैं चिंतित हो गया.

  • इंतज़ार, सिडनी

    रोचक वर्णन …

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, इन्तजार जी !

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपके सभी मित्रो के बारे में पढ़कर लगा की यह सभी भिन्न भिन्न सुगंधों व आकर्षक स्वरुप वाले फूल हैं जिसने अध्ययन काल में आपके जीवन को खुशबू से महका रक्खा था। अच्छे मित्रों की संगति से जीवन में बहुत लाभ होता है। अच्छे मित्र सफलता की गारंटी होते है। इस बारे में आप भाग्यशाली दिखाई देते हैं। रोचक आत्मा कथा के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, महोदय !

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद !

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