उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 27)

शीघ्र ही वहाँ से टेस्ट तथा इन्टरव्यू का बुलावा आ गया। तारीख दो-चार दिन बाद की ही थी अतः हमने जाने का प्रोग्राम तय कर लिया। बुलावे के पत्र में इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि रेलवे स्टेशन से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तक पहुंचने का क्या तरीका है। अतः दिल्ली के जानकार कुछ लोगों से डा. भाई साहब ने पूछ कर पता लगा लिया कि नई दिल्ली स्टेशन से पहले प्लाजा (कनाट प्लेस) तांगे पर जाना है, फिर वहाँ से 615 नम्बर की सिटी बस मिलेगी, जो सीधी विश्वविद्यालय तक जायेगी।

उस समय तक मैं दिल्ली जा तो चुका था, लेकिन बड़े भाई साहब के साथ ही गया था। कभी अकेला नहीं गया था। इसलिए इस टेस्ट के लिए भी अकेले जाने का सवाल नहीं था। अन्ततः डा. साहब के साथ जाना तय हुआ। उनका साथ मुझे पसन्द भी था। लिखित परीक्षा का समय प्रातः 9.00 बजे था अतः ऐसी किसी गाड़ी से जाना खतरनाक था जो वहाँ 7-8 बजे पहुंचती थीं क्योंकि गाड़ियां प्रायः लेट हो जाती थीं। अतः हमने यही तय किया कि हम पठानकोट एक्सप्रेस से जायेंगे। जो प्रातः सवा दो बजे आगरा से छूटती थी और दिल्ली प्रातः 5.00 बजे पहुंचा देती थी। हमने सोचा कि यदि घंटे-दो घंटे लेट भी हो गयी तो कोई चिन्ता नहीं।

निश्चित दिन पर हम पठानकोट में बैठ गये और मेरे सौभाग्य से उस दिन गाड़ी ज्यादा लेट नहीं हुई और हम प्रातः 6.00 नई दिल्ली स्टेशन पर उतर गये। अब हमें विश्वविद्यालय पहुंचने की जल्दी थी क्योंकि हमें यह अंदाजा नहीं था कि वहाँ से विश्वविद्यालय तक पहुंचने में कितना समय लगेगा। हम जल्दी-से-जल्दी वहाँ पहुंच कर निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। तुरन्त ही हम ताँगे में बैठ कर प्लाजा स्टाप तक आये, उन दिनों उस सड़क पर ताँगे ही चला करते थे। संयोग से उस समय वहाँ 615 नम्बर की बस तैयार खड़ी थी। फौरन हम उसमें चढ़ गये और विश्वविद्यालय तक पहुंचने का इन्तजार करने लगे। मैं आंखें फाड़-फाड़ कर दिल्ली का नजारा देख रहा था और रास्तों को पहचानने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मेरे तमाम प्रयत्नों के बाबजूद मैं केवल इण्डिया गेट को ही दूर से पहचान पाया। करीब घंटे भर बस में चलते रहने के बाद मुझे एक जगह ‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय’ लिखा हुआ नजर आया। लेकिन तब तक उसका स्टाप निकल गया था, अतः हम अगले ही स्टाप पर उतर सके।

वहाँ से हम लौट कर पैदल विश्वविद्यालय के स्टाप पर आये और वहाँ खड़े हुए लोगों से कम्प्यूटर साइंस के स्कूल का ठिकाना पूछा। उनसे ज्ञात हुआ कि वह यहां से बहुत दूर है और बस से जाना पड़ेगा। तब हमने बस का इंतजार किया और उसके आने पर चैन की साँस ली। वह बस न जाने किन-किन पहाड़ों के बीच से गुजरती हुई हमारी मंजिल की ओर चली। मुझे बरबस यह शे’र याद आ रहा था-
चलने को चल रहा हूँ पर इसकी खबर नहीं।
कि मैं हूँ सफर में या मेरी मंजिल सफर में है।।

राम-राम करके हम उस स्टाप पर उतरे जो कि कम्प्यूटर साइंस स्कूल का स्टाप बताया जा रहा था। स्टाप से हम और लोगों के साथ आगे बढ़े, तो बगल में ही एक सुन्दर इमारत पर मुझे ‘स्कूल आॅफ कम्प्यूटर एण्ड सिस्टम्स साइंसेज’ शब्द लिखे हुए नजर आये। आखिर हम अपनी मंजिल पर आ पहुंचे थे।

उस समय केवल 7.30 बजे हुए थे और टेस्ट शुरू होने में काफी देर थी हमने कुछ खाया-पीया भी नहीं था। अतः हम पास में ही किसी कैन्टीन की तलाश करने लगे। वहीं एक अच्छी कैन्टीन मिल भी गयी, जो उसी इमारत में थी। वहाँ हमने चाय पी और दो-दो समोसे भी खाये।

ठीक 9.00 बजे हमारा टेस्ट शुरू हुआ। मेरे अलावा और भी सैकड़ों लोग टेस्ट देने आये थे और मैं अब कुछ घबड़ाने लगा था, क्योंकि सीटों की संख्या केवल 15 थी। फिर भी मैंने टेस्ट दिया। टेस्ट मेरी उम्मीद के अनुसार ही था न ज्यादा सरल और न बहुत कठिन। मैंने ज्यादातर प्रश्नों का उत्तर लिख दिया और संतुष्ट होकर बाहर आ गया। अब मुझे इन्टरव्यू देना था। दोनों के परिणाम पर ही प्रवेश मिलना निर्भर था। लेकिन उस दिन जिन लोगों के इन्टरव्यू होने थे उस सूची में मेरा नाम नहीं था, क्योंकि वे लोग बहुत दूर-दूर से आये थे। और मैं केवल आगरा से। उन्होंने बताया कि मेरा इन्टरव्यू कल लिया जायेगा।

तब हम दोनों मैं और डा. भाई साहब वहाँ से चले। पहले हमने एक रेस्ट्रां में खाना खाया। फिर वे मेडिकल कालेज के पुस्तकालय में अपने मतलब की पुस्तकें खोजने लगे। मैं काफी थका हुआ था, अतः वहीं एक कुर्सी पर बैठा-बैठा मेज पर सिर टिका कर सो गया। भाई साहब का काम पूरा होने पर मुझे जगना पड़ा। अब हमें कहीं रात को ठहरने का इन्तजाम करना था। पहले हम नई सड़क गये, जहाँ भाई साहब ने कुछ किताबों के बारे में पूछताछ की और कुछ खरीदी भी। तब हमने वहाँ के आस-पास धर्मशालाओं की खोज की। एक धर्मशाला मिली, लेकिन उन्होंने बताया कि कोई कमरा खाली नहीं है। वहीं से हमारे साथ एक होटल का एजेन्ट लग गया। उसने कहा कि मैं केवल 20 रुपये में अच्छा कमरा दिलवा दूंगा।

हमें होटलों में ठहरने का कोई अनुभव नहीं था और दिल्ली के लिए भी हम नये थे, इसलिए हम झिझक रहे थे। फिर भी हमने सोचा कि देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। अतः हम उसके साथ चल पड़े। जाने किन-किन बाजारों और गलियों से होकर वह हमें एक होटल में ले गया और वहाँ एक कोठरी दिखायी। कोठरी हमें पसन्द नहीं आयी। अतः हम वापस लौटने लगे तब वह आदमी काफी बड़बड़ाया और उल्टा-सीधा बकने लगा। हमने वहाँ उसे झिड़क तो दिया, लेकिन कुछ डर भी रहे थे, इसलिए तुरन्त बाहर आ गये। हमारे पीछे-पीछे वह भी बाहर आया। सड़क पर उसने फिर हमारा मजाक बनाया तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उसे खूब गालियाँ दी और जूतों से पिटाई करने की धमकी दी, तो वह चुपचाप खिसक गया।

होटल में कटु अनुभव होने पर हमने होटलों में ठहरने का इरादा छोड़ दिया और रेलवे स्टेशन पर ठहरने का विचार बनाया। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पास में ही था। हमने पहले उसके बाहर एक सस्ते से होटल में खाना खाया, फिर स्टेशन के प्रतीक्षालय में जाकर सोने के स्थान की तलाश की। सौभाग्य से हमें एक बेंच खाली मिल गयी। वहाँ कुछ लोग और भी बैठे हुए थे कुछ देर बाद दूसरे लोग उठ गये, तो हमने दो व्यक्तियों के सोने लायक स्थान निकाल लिया। वहीं हमने वह रात बारी-बारी से सोते हुए गुजारी।

दूसरे दिन प्रातःकाल हमने नहाने के लिए बाथरूम की खोज की। वहाँ कई बाथरूम थे, लेकिन बाहर एक जमादार बैठा हुआ था। यद्यपि वहाँ साफ-साफ लिखा हुआ था कि जमादार को पैसा न दें। लेकिन वह बिना पैसे लिये न तो किसी को शौच करने देता था और न नहाने देता था। लिहाजा हमने उसे 25-25 पैसे दिये और नहाने की आज्ञा ली।

तैयार होकर हम फिर विश्वविद्यालय आये और इन्टरव्यू के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। सौभाग्य से मेरी बारी जल्दी ही आ गयी। मैंने इन्टरव्यू की व्यवस्था करने वाले क्लर्क को बाहर बता दिया था कि मैं सुनने में असमर्थ हूँ अतः मेरी बारी आने पर उसने इन्टरव्यू बोर्ड को इसकी सूचना दे दी थी। मैंने भी अंग्रेजी में निवेदन किया कि मैं सुनने में असमर्थ हूँ, अतः कृपया अपने प्रश्न लिखकर पूछें। शीघ्र ही मेरे पास कई प्रश्न पर्चियों पर लिखे हुए आ गये। मैंने अपनी जानकारी के अनुसार एक-एक करके सभी प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर दे दिये। तब उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया और मैं बाहर आ गया।

आगरा लौटकर मैं वहाँ से एडमीशन की सूचना प्राप्त होने का इन्तजार करने लगा। उस समय शहनाज से मेरा पत्र व्यवहार बहुत अच्छी तरह चल रहा था। सबसे पहले मैंने उसी को सूचना दी थी कि मैं दिल्ली में एडमीशन के लिए टेस्ट देकर आया हूँ। जब काफी दिन तक जबाब न आया, तो मैं चिन्तित होने लगा। मैंने शहनाज को अपनी चिन्ता के बारे में लिखा। उसका जबाब आया कि वह मेरे एडमीशन के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रही है और मुझे एडमीशन जरूर मिलेगा। आखिर एक दिन उसकी भविष्यवाणी सही सत्य सिद्ध हुई और मुझे एडमीशन होने की सूचना तार द्वारा प्राप्त हुई।

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। सबसे पहले मैंने शहनाज को ही एडमीशन मिलने की सूचना पत्र द्वारा दी। निश्चित तिथि को मैं एक बार फिर डा. भाई साहब के साथ दिल्ली गया। दाखिले की औपचारिकतायें पूरी होने में ज्यादा समय नहीं लगा, लेकिन चिन्ता मुझे होस्टल मिलने की थी। पता चला कि एक-दो दिन में होस्टल मिलेगा। तब तक मुझे कहीं अपनी ठहरने का इन्तजाम करना था। मैं अपने साथ बिस्तर भी लाया था, जिन्हें हमने एक कैन्टीन में रख दिया, यह कहकर कि जल्दी ही ले जायेंगे। उस दिन शुक्रवार था, होस्टल अगले दिन मिलने की उम्मीद थी। रात को कहीं न कहीं ठहरना आवश्यक था।

संयोग से आगरा के समाज विज्ञान संस्थान, जहाँ से मैंने एम.स्टेट. किया था, के एक भूतपूर्व छात्र श्री नवीन बंसल, जो मुझसे एक साल पीछे थे, उस समय दिल्ली में ही भारतीय सांख्यिकी संस्थान में पढ़ रहे थे। यह बात मुझे ज्ञात थी। वह संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पास में ही था। मैंने उनके पास ही ठहरने का विचार बनाया। सौभाग्य से नवीन बंसल हमें मिल गये और हमारे ठहरने का इन्तजाम करने को भी खुशी से तैयार हो गये। लेकिन डा. साहब का वहाँ ठहरना आवश्यक नहीं था तथा वह असुविधाजनक भी होता, अतः वे उसी दिन आगरा वापस चले गये।

अब मैं दिल्ली में बिल्कुल अकेला था। यों नवीन बंसल मेरी सहायता करने को तैयार थे, लेकिन मैं सहायता के लिए किसी के आगे हाथ फैलाना पसन्द नहीं करता था, अतः मैंने अपने बल पर ही होस्टल लेने की ठानी। होस्टल लेने वालों की सूची काफी लम्बी थी, इसलिए भीड़भाड़ भी बहुत थी। बहुत से लोगों ने किसी न किसी होस्टल में अपने-अपने दोस्तों के यहाँ अड्डा जमा लिया था और प्रायः निश्चिन्त थे। लेकिन मेरा नवीन बंसल को छोड़कर पूरी दिल्ली में कोई मित्र या रिश्तेदार नहीं था। उस समय कुलवन्त सिंह गुरु मेरे एक साधारण पत्र-मित्र थे, जो दिल्ली में अकेले रहते थे। लेकिन मैं उनके पास इसलिए नहीं जाना चाहता था कि वे मुझे स्वार्थी न समझ लें। दूसरी ओर नवीन बंसल के पास भी ज्यादा दिनों तक रहना संभव नहीं था।

सोमवार को आखिर मेरे नाम एक कमरा एलाट हुआ मेरे दुर्भाग्य से उस समय उस कमरे में एक सज्जन अपनी प्रेमिका के साथ रहते थे। उनका विचार किसी तीसरे को उस कमरे में टिकाकर अपने ‘कार्य’ में व्यवधान डलवाने का नहीं था। अतः मैंने होस्टल के वार्डन से फिर प्रार्थना की कि मुझे कोई दूसरा कमरा दे दिया जाय। आखिर दो दिन बाद मुझे दूसरा कमरा मिला। तब तक मैं बहुत परेशान हो गया था, क्योंकि मेरे खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था। मैं सुबह नवीन के पास से निकलता और दिन भर विश्वविद्यालय में भटकने के बाद रात को उसके कमरे में आकर सो जाता था। पूरा दिन मैं कैन्टीन में चाय समोसा या बिस्कुट खाकर गुजार देता था। एक दिन मुझे भूखा भी रहना पड़ा, क्योंकि वहाँ मेरी जानकारी में कोई होटल नहीं था और बिस्कुट-समोसे खाते-खाते मैं ऊब गया था।

दूसरा कमरा मिल जाने के बाद मैं उसमें गया. अपना सामान नवीन के पास से लाया और बिस्तर भी कैन्टीन से लाकर होस्टल में रखा। उसी दिन दोपहर को मैंने होस्टल की मैस में दाखिला लिया और तब कई दिन बाद मैंने पेट भर कर खाना खाया। उस दिन तक मैं इतना परेशान हो गया था कि मैंने तय कर लिया था कि अगर आज कमरा नहीं मिला, तो मैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर आगरा चला जाऊँगा और मम्मी की गोद में जाकर सो जाऊँगा।

सौभाग्य से इसकी नौबत नहीं आयी। उसी दिन शाम को मैंने पहली बार घर को पत्र लिखा। अपनी एक दिन भूखा रहने की बात मैं छुपा गया, क्योंकि मैं जानता था कि मम्मी यह जानकर बेकार में रोयेगी। मैं कक्षाओं में जाने लगा था और पढ़ने में ध्यान लगाने की कोशिश करता था। लेकिन विश्वविद्यालय का वातावरण मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं आ रहा था। वहाँ के लड़के-लड़कियाँ घंटों तक हाथ में हाथ डाले घूमते रहते थे तथा पेड़ों के नीचे अंधेरे कोनों में गुफ्तगू किया करते थे। यह मेरे लिए एक बिल्कुल नई बात थी। मैं भारतीय संस्कृति का हिमायती था और हूँ। मैं लड़के-लड़कियों की स्वस्थ मित्रता का समर्थक रहा हूँ। लेकिन मर्यादा उल्लंघन को मै अक्षम्य अपराध मानता हूँ। अतः मेरे संस्कार उस विश्वविद्यालय के वातावरण को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 27)

  • इंतज़ार, सिडनी

    हमेशा अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहती है …

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, इन्तजार जी. हर तीसरे दिन एक कड़ी डालता हूँ.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपको प्रवेश लेने के लिए कई प्रकार का तप करना पड़ा। तप भावी सफलता का आधार होता है। वेद में ईश्वर को भी तपस्वी कहा गया है। उसने तप किया जिसका परिणाम हमारी यह सृष्टि है। योग में भी ईश्वर साक्षात्कार की सफलता के लिए तप को नियमों में परिगणित किया गया है। आपका सारा तप सफल हुआ इससे आप भाग्यशाली सिद्ध हुए। अब प्रतीक्षा यह जानने की है कि पढाई का आरम्भ होने पर आपके अनुभव कैसे थे?

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, महोदय ! आगे की कड़ियाँ मेरे विश्वविद्यालय प्रवास के बारे में ही हैं.

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