उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 30)

उस वर्ष 1981 में छात्र संघ के चुनावों में मैंने अपने स्कूल से श्री बी. राजेश्वर का पार्षद पद के लिए खुला समर्थन किया। दूसरे गुट ने मुझे फोड़ने के लिए कई हथकंडे अपनाये, लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ। मैंने श्री राजेश्वर को जिताने में दिन-रात एक कर दिये थे। उसमें श्री कृष्णराव का मार्गदर्शन मुझे मिला। मुकाबले में पुनः श्री आदित्यचन्द्र झा थे। जब परिणाम आया तो सभी आश्चर्यचकित रह गये। श्री झा को मात्र 12 वोट मिले थे और श्री राजेश्वर 22 वोट पाकर भारी बहुमत से जीत गये। लोगों ने इस जीत का बहुत कुछ श्रेय मुझे दिया। आगे श्री राजेश्वर की सारी गतिविधियों का संचालक मैं रहा। लड़के मुझे सुपर काउन्सलर कहा करते थे।

उस वर्ष कम्प्यूटर सोसायटी आफ इण्डिया का वार्षिक सम्मेलन मद्रास (तब उसे चेन्नई नहीं मद्रास ही कहा जाता था) में होना था। हमारे स्कूल से छात्रों ने जाने का प्रोग्राम बनाया और उस यात्रा का नेतृत्व औपचारिक रूप से श्री राजेश्वर को तथा अनौपचारिक रूप से मुझे सौंपा गया।

उस यात्रा का प्रबन्ध करने में मैंने जी-तोड़ मेहनत की। हमारी यात्रा के पड़ाव मद्रास, बंगलौर तथा हैदराबाद थे। उन सभी स्थानों के लिए तथा वापस दिल्ली के लिए गाड़ियों में आरक्षण कराने का मुश्किल कार्य मैंने पूरा कर दिखाया और हमें कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई। श्री राजेश्वर तथा डा. सदानन्द के सहयोग से हमने इन तीनों ही स्थानों पर ठहरने का प्रबन्ध भी बहुत मामूली खर्च में कर लिया और अधिकतम यह कोशिश की कि किसी को कोई परेशानी न हो।

इस यात्रा के दौरान मैं हैदराबाद में एक दिन विचित्र मुश्किल में फंस गया था, जिसमें से मैं अपनी सूझ-बूझ से ही निकला था।
उस दिन मैं अकेला ही हैदराबाद का सालारगंज संग्रहालय तथा चिड़ियाघर देखने चल पड़ा था। मेरी जेब में उस समय एक 50 रुपये का नोट और एक दो रुपये का नोट था तथा 50 पैसे खुले थे। लेकिन मैंने सोचा कि मेरे पास चार रुपये 25 पैसे हैं अर्थात् मुझे यह ध्यान नहीं था कि एक रुपये 75 पैसे में खर्च कर चुका हूँ।

मैं पहले सालारगंज म्यूजियम गया और उसे निश्चिंततापूर्वक देखा। बाहर आकर मैंने दो रुपये के केले खाये और फिर चिड़ियाघर जाने वाली बस में चढ़ गया। मेरा ख्याल था कि मेरे पास अभी 2 रुपये 25 पैसे और हैं। लेकिन जब मैंने दो का नोट निकालने के लिए जेब में हाथ डाला तो उसमें से मात्र एक चवन्नी बरामद हुई। अब मैं घबराया क्योंकि बस की टिकट में ही 40 पैसे लगते। मैंने कण्डक्टर से कहा कि मेरे पास अब केवल 50 रुपये का नोट रह गया है। तो उसने कहा कि खुले पैसे नहीं है तो उतरो। अब मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि वहीं उतर कर पैदल वापस आता। लेकिन तभी मैंने दो का नोट ढूंढने के लिए एक बार फिर अपनी जेबें टटोलीं तो मेरे सौभाग्य से एक जेब में एक और चवन्नी पड़ी मिल गयी, जिसका मुझे ज्ञान नहीं था।

अब मेरे पास दो विकल्प थे कि वहीं उतर का वापस चला जाऊँ या चिड़ियाघर पहुँच कर 50 का नोट तुड़ाने की कोशिश करूँ। उन दिनों रेजगारी की जैसी किल्लत भी उसमें 50 का नोट तुड़ाना कम से कम मेरे लिए असंभव ही था, लेकिन मैंने न जाने क्या सोचकर चिड़ियाघर जाना ही तय किया।

चिड़ियाघर पहुँचने पर मेरे पास 50 रुपये का एक नोट और एक 10 पैसे का सिक्का मात्र था। मैंने कुछ बस कण्डेक्टरों और दुकानदारों से 10-10 के नोट देने के लिए निवेदन किया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। बिना रेजगारी के मेरे 50 रुपये वाले नोट का मूल्य एक कागज से ज्यादा नहीं था।

चिड़ियाघर में घुसने की टिकट 50 पैसे मात्र थी और मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ। तभी एक विचार मेरे दिमाग में आया। जिस बस में मैं आया था उसी में एक मुस्लिम सज्जन अपने 8-10 सदस्यों के परिवार के साथ चिड़ियाघर देखने आये थे। मैंने उनसे प्रार्थना की कि आप मेरे नोट में से सबके लिए टिकट खरीद लें जिससे खुले रुपये आ जायेंगे। वे सज्जन तैयार हो गये और मैं सबके लिए टिकट खरीदने के लिए लाइन में लग गया।

मुझे उस लाइन में लगे हुए मात्र एक मिनट ही हुआ था कि जाने किधर से एक लड़का आया और मुझसे पूछा- टिकट लोगे? मैं समझ तो गया, लेकिन मुझे विश्वास नहीं आया। तब उसने बिना और कुछ कहे टिकट मेरे हाथ में रख दिया। मैं टिकट को उलट-पुलट कर देखने लगा कि कहीं यह मुझे बेवकूफ तो नहीं बना रहा है। लेकिन मुझे उसमें कोई खामी नजर नहीं आयी। तब तक वह लड़का चला गया था। मुझे तब भी विश्वास नहीं आया। जो लोग खिड़की पर से टिकट खरीद कर ला रहे थे उनसे मैंने टिकट मिलाकर देखा और संतुष्ट हो गया। मैंने ईश्वर को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया, लेकिन इस बात का अफसोस रहा कि मैं उस सहृदय लड़के को औपचारिक धन्यवाद भी नहीं दे सका।

ईश्वर का नाम लेकर मैं चिड़ियाघर में प्रवेश कर गया और घूम-घूम कर देखने लगा। वह काफी बड़ा और अच्छा था, लेकिन मैं उसका पूरा आनन्द नहीं ले पाया क्योंकि एक तो मुझे जोर की भूख लग रही थी और फिर वापस लौटने की चिन्ता भी थी। मैंने कई सूटेड-बूटेड लोगों से 50 रुपये के खुले रुपयों के बारे में पूछा लेकिन सबने मना कर दिया। अंग्रेजी देवी भी इसमें मेरी कोई मदद नहीं कर सकीं।

मैं एक कैन्टीन की तलाश में था। अन्ततः ऐसी एक कैन्टीन मुझे मिल गयी जहाँ दूध की बोतलें डेढ़-डेढ़ रुपये में बिक रही थीं। मैंने उससे एक-दो बोतलें लेने की इच्छा व्यक्त की और बताया कि मेरे पास पचास का नोट है, तो उसने कह दिया खुले रुपये नहीं है। वहीं काउन्टर पर एक और आदमी रुपये गिन रहा था। उसके पास खुले नोट भी थे, लेकिन मेरी हिम्मत उससे माँगने की नहीं हुई। जब उसने सिर उठाकर देखा कि मेरे हाथ में पचास का नोट है तो वह समझ गया कि इसे खुले रुपये चाहिए। उसने मुझसे नोट ले लिया और गिन कर 5-5 के 10 नोट पकड़ा दिये।

मेरी एक बहुत बड़ी समस्या तो हल हो गयी थी, लेकिन भूख का इन्तजाम और करना था। इसलिए मैंने 9 नोट अपने जेब के हवाले किये और दसवाँ नोट पहले आदमी की तरफ बढ़ाया कि एक बोतल दे दो। तो वह फिर बोला- खुले पैसे नहीं हैं। मैं नियति के इस मजाक पर हँस पड़ा। खैर, मैंने सोचा कि नहीं हैं तो न सही। बाहर देखा जायेगा। मैं तुरन्त बाहर आया और कुछ खाकर अपने पेट की आग शान्त की।

हमारी यह यात्रा आशा से अधिक सफल रही। लोग मेरी कार्य कुशलता का लोहा मान गये और कई लड़के तो मजाक में मुझे ‘मैनेजिंग डायरेक्टर’ कहा करते थे। हमारी इन सफलताओं से दक्षिणपंथी गुट लगभग शान्त हो गया था। यद्यपि उनके नेता प्रो. दिलीप कुमार बनर्जी, जो वैसे बहुत योग्य थे, तब तक वापस आ गये थ। उस वर्ष छात्र-अध्यापक समिति के लिए जो चुनाव हुए उनमें हमारे ग्रुप द्वारा नामजद पाँचों छात्र निर्विरोध निर्वाचित हो गये थे, क्योंकि दूसरे गुट ने किसी को खड़ा करने तक की हिम्मत नहीं की थी। चुने जाने वालों में इस बार भी मेरा नाम था।

प्रो. बनर्जी के आ जाने के बाद उस ग्रुप को कुछ आत्मविश्वास प्राप्त हुआ और वे फिर से हमसे उलझने की कोशिश करने लगे थे। इसका एक कारण यह भी था कि उस समय डा. मुखर्जी डीन थे तथा प्रो. बनर्जी हमारे एक मात्र चालू कम्प्यूटर के इंचार्ज थे। दूसरा समूह इस बात का नाजायज फायदा उठाने की सदा कोशिश किया करता था।

उस समय हमारे सेन्टर पर एक ही कम्प्यूटर था – एच.पी. 1000/40 जो कि मिनी कम्प्यूटर था और उस पर एक बार में एक ही व्यक्ति काम करता था। नियम के अनुसार कोई छात्र या अध्यापक प्रतिदिन अधिक से अधिक एक घंटे कार्य कर सकता था यदि दूसरा कोई उसका प्रयोग करना चाहता हो। लेकिन उस गुट के लड़के जानबूझकर ज्यादा समय लेते थे और झगड़ा करने की कोशिश करते थे। हमारे समूह से मैं तथा एक-दो अन्य लड़के ही नियमित कम्प्यूटर का प्रयोग करते थे। कम्प्यूटर के समय को लेकर हमसे प्रायः झगड़ा होता रहता था। तभी एक ऐसी घटना हो गयी, जो काफी गंभीर मोड़ तक पहुंच गयी थी।

हुआ यह कि एक बार मैंने कम्प्यूटर के साथ जुड़े हुए प्रिन्टर को गलती से खोल लिया, लेकिन मैं उसे ठीक से लगा नहीं पाया और इसी तरह छोड़कर चला आया। जब प्रो. बनर्जी, जो कम्प्यूटर के इंचार्ज थे, को इस घटना का पता चला तो उन्होंने मुझे बहुत डाँटा। मैं उनसे पहले से जला हुआ तो था ही, इससे और ज्यादा भड़क गया। हालांकि गलती मेरी थी।

कुछ दिनों बाद मेरा उनके एक चेले से, जो बहुत उद्दण्ड था तथा खुद को दादा मानता था, कम्प्यूटर के ऊपर झगड़ा हो गया। तभी प्रो. बनर्जी तथा उनके ही साथी डा. सक्सेना वहाँ आ गये और बिना पूरी बात सुने उस लड़के का पक्ष लेकर मुझे डाँटने लगे। मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने कुछ उल्टा- सीधा बोल दिया। इस बात पर प्रो. बनर्जी बहुत नाराज हो गये और उन्होंने कम्प्यूटर को अनिश्चित काल के लिए बन्द कर दिया। तब मैंने उनसे कहा- सर! यह तानाशाही है और मैं इसके खिलाफ लडूँगा।

उसी दिन प्रो. बनर्जी ने मेरी शिकायत करते हुए एक पत्र हमारे डीन डा. मुखर्जी को लिखा। डा. मुखर्जी ने मुझसे जबाब माँगा तथा मेरे गाइड डा. सदानन्द को भी सूचित कर दिया। मुझे डर था कि डा. सदानन्द मुझे बहुत डाँटेंगे, क्योंकि सारी गलती मेरी थी। लेकिन उस समय मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने मुझसे कहा- ‘तुमने उनसे जो कुछ कहा या किया, ठीक है। अगर वे राजनीति खेलना चाहते हैं तो हम भी तैयार हैं।’ मैं यह सुनते ही धक से रह गया। उस दिन से मेरी नजरों में डा. सदानन्द का सम्मान कुछ कम हो गया। मेरे कई दोस्तों ने मुझे समझाया भी कि प्रायः प्रोफेसर इसी तरह अपने छात्रों को अपना मोहरा बनाते हैं।

कुछ दिन बाद डा. मुखर्जी ने मुझे और प्रो. बनर्जी को बातचीत तथा समझौते के लिए बुलाया और मुझे समझाया कि ये तुम्हारे गुरु हैं। इनसे उलझना नहीं चाहिए तथा इनका सम्मान करना चाहिए। उन्होंने प्रो. बनर्जी का शिकायती पत्र भी मुझे पढ़ने को दिया। उसे पढ़कर मैंने कह दिया कि इसमें जो कुछ लिखा है, ठीक है। मैंने अपनी गलती स्वीकार की और प्रो. बनर्जी से अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगी। यह प्रो. बनर्जी की महानता ही कही जायेगी कि उन्होंने न केवल मुझे क्षमा कर दिया, बल्कि आगे मुझे बहुत सहयोग और प्यार दिया।

हमारे इस समझौते को स्कूल में बहुत प्रशंसा मिली। मेरे अधिकतर साथियों ने मुझे इस बुद्धिमत्तापूर्ण कदम के लिए बधाई दी। डा. सदानन्द भी मामला समाप्त हो जाने पर खुश थे। लेकिन कई लोग ऐसे भी थे जो मुझे बलि का बकरा बनाना चाहते थे और इस तरह मामला समाप्त हो जाने से अपने मन में खुश नहीं थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 30)

  • आप की कथा तो रोचक है ही , इस में जो आप ने पचास रूपए के नोट के बारे में लिखा है , उस से मुझे बचपन की याद ताज़ा हो आई जब इस तरह हम दो दोस्त सकूल से भाग कर एक मेला देखने चले गए थे . दोस्त की जेब में एक अन्ना था और मेरी जेब में दवंनी थी , भूख लगने पर दोस्त ने देखा कि उस का अन्ना कहीं गिर गिया था , अब मेरी दवंनी पर ही आशाएं थी , एक दूकान से मूंगफली खरीदी , जब पैसे दिए तो दुकानदार ने कहा कि दवंनी खोटी है .

    • विजय कुमार सिंघल

      हा…हा…हा…. कभी कभी ऐसा भी होता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    सारा विवरण आरम्भ से अंत तक पढ़ गया। मैंने दो आत्मा कथाएं पढ़ी है। एक का शीर्षक है “जीवन की धूप छाव ” तथा दूसरी “खट्टी मीठी यादें”. आपके इस लेख को पढ़ कर लगा कि मैं आपके जीवन की खट्टी मीठी यादें और जीवन की धूप-छाव को पढ़ रहा हूँ। आपकी लेखन शैली जड़ घटना में प्राण प्रतिष्ठा कर उसे रोचक बना देती है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

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