मुक्तकगीत “खर-पतवार उगी उपवन में”
सुख का सूरज नहीं गगन में। कुहरा पसरा है कानन में।। पाला पड़ता, शीत बरसता, सर्दी में है बदन ठिठुरता,
Read Moreसुख का सूरज नहीं गगन में। कुहरा पसरा है कानन में।। पाला पड़ता, शीत बरसता, सर्दी में है बदन ठिठुरता,
Read Moreप्रकृति यहाँ चिंतन करती है निर्झर नीर प्रणय करती है जीवन का अहसास कराती उपवन संग सरिता मदमाती तेरा मधुर
Read Moreकुछ कही, कुछ अनकही सी बातें चाय की चुस्की और बीती यादें ! पुनः किस्से पुराने, दोहराती हैं तेरी यादें…
Read Moreदिन-रात सुबह -शाम भोर -साँझ कुछ नहीं बदलते दोनों समय का नारंगीपना….. उजली दोपहर अँधेरी काली आधी रात हो सब
Read Moreज़िन्दगी की रात में लिखा है मैंने , एक आखिरी प्रेम गीत। अगर सुनाई दे तुम्हें , तो सुन लेना !
Read Moreबीते दिनों को अब दो विदाई नव वर्ष को अब दो बधाई लम्हे गुजर गये हैं जो बीते क्या वो
Read Moreबदला-बदला सा दिख रहा है सबकुछ, जो कभी करीब रहा करता था, भाई बनकर, वो भी चचेरा भाई सगा भाई
Read Moreज़िंदगी फिर कुछ गुनगुना रही है मेरे कानों में, पर दुनिया के शोर में मुझे कुछ सुनाई नहीं देता, कितनी
Read Moreसाथी चलो चले, खुले गगन के तले। भटके बिना वजह, सबको लगा गले।। घर बार छोड़कर, ममता को तोड़कर। ले
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