ग़ज़ल
सुकून-ओ-चैन क्या पता किधर चले गए, अपनों की दुआओं से भी असर चले गए खुद फरिश्तों को भी नाज़ होता
Read Moreसमय ये आ गया कैसा दीवारें ही दीवारें , नहीं दीखते अब घर यारों बड़े शहरों के हालात कैसे आज
Read Moreदेखा है जितनी बार तुम्हे, हर बार नए से लगते हो, छलक-छलक जाए आँखों से, प्रेम पात्र भरे से लगते
Read Moreहर गीत और कविता तुम्हारे नाम लिखेंगे जो कुदरत ने दिया वो तुम्हें इनाम लिखेंगे। ज्ञान हमें छंद-बंधों का नही
Read Moreज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है, रोज़ देती सजा सी लगती है। रौनकें सुबह की हैं कुछ फीकी, शाम भी
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