कविता

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अंटी मार रहे

वो दुकानदार बनके,मार रहे हैं अंटीकभी हक-अधिकार कोकभी रोजी-रोजगार को।सोंचता हूँ दुकानदार बदलेगापर नही बदलता हैलुभावने वचनों में उलझाकरहमको ही

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कविता

ठोकरें खाने वाले

ठोकरें खाने वाले,कुछ सीख ज़रूर जातें हैं।इस इल्म को हासिल कर,मजबूत क़दम उठाते हैं।नजदिकियां बढ़ाने से,अक्सर परहेज़ करते हैं,उन्हें इसकी

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